दीप जला रे!

भ्रमित अहं मन अहन गिने रे 

सूरज ने हारे अंधेरे 
प्रीत द्यूत की जीत मना रे 
दीप जला रे! 
नायक चाप शर भङ्ग हिले 
हंता मन में मोद खिले 
आँखें जब हों दीर्घतमा रे
दीप जला रे! 
दिशाशूल सब सङ्ग मिले 
यात्रा के बहुपंथ भले 
सब भूलों की माँग क्षमा रे
दीप जला रे! 
इस रात विपथगा गङ्ग चले
पूनम में न आस दिखे 
तेरस को भी मान अमा रे 
दीप जला रे! 
रुद्रों के सरबस शूल चले 
भगीरथों के कंध छिले 
दुखते पापों के भार सदा रे
दीप जला रे!

न सुर न ताल, बस मुक्तक

न सूर्य रचे न चन्द्र रचे 
रजनी के श्यामल वस्त्रों पर, उल्का के पैबन्द रचे ॥3/4॥
शब्द नहीं न अर्थ सही, अलंकार की कौन कहे
रोज रोज के घावों को, कविता में हम खूब सहे ॥1॥
आग जल रही हवन हो रहा, न देव दिखें न लेव दिखें
सामधुनों में रोदन उभरा, आँखें मलते उद्गीथ दिखे ॥2॥
हूँ हारा मन का मारा, पर साँसों में संगीत सजे
मज़दूरी के सिक्कों में जब, बाल हँसी की झाल बजे ॥3॥
आह तुम्हारा वाह तुम्हारा, हम मौनी मनमीत भले
कंठ भरे तब आ जाना, चुपचाप ढलेंगे साँझ तले ॥4॥
द्वार हमारे भीर जुटी है, टुकड़े टुकड़े शववस्त्र मिले
जीते जी नंगा ही रह गया, मरने पर क्या खूब सिले ॥5॥