पुस्तक, धूल और एलर्जी

जाने कहाँ से आ गई है
आलमारी में बन्द उस पुस्तक
‘एलर्जी से कैसे बचें’  पर धूल?


डर से पुस्तक नहीं छूता 
कहीं धूल वाली एलर्जी उपट न जाय।


अगर एलर्जी से बचना है
तो रोज पुस्तक पढ़नी होगी।


…मैंने तो समझ लिया
आप ?

सुखरोग

…लीवर पर चढ़ी चर्बी

धमनियों में चिपकी चर्बी
कोलेस्ट्रॉल ने खून किया गाढ़ा . .
चेक अप की मेरी रिपोर्टें यही कहती हैं।

डाक्टर से पूछा,
“मीठा नहीं खाता
तला नहीं खाता
घी देखे जमाना हो गया
बीवी बघार में तेल नहीं पानी डालती है।
भूख से कम ही खाता हूँ।
उमर भी अभी क्या हुई !
डाक्टर ऐसा मेरे साथ कैसे हो गया?
ऐसा केस तो मैंने अब तक नहीं देखा।”

डाक्टर ने बताया ,
“तुम्हें सुखरोग हो गया है।
ज़माना बदल चुका है।
कुछ भी करो,
जब तक सही खाओगे नहीं
सही श्रम नहीं करोगे
यह सब बढ़ता ही रहेगा।
केस ऐसा क्यों नहीं देखा?
भारत देश सामने है,
अभी उसकी उमर ही क्या है?
सुखरोग को नया मेडिकल साइंस
‘भारत रोग’ कहता है।
जांनते हो क्या?”

‘सही खाना’ और ‘सही श्रम’
मैं तो कर लूँगा
लेकिन !
डाक्टर ऐसा जुमला फिर न बोले,
यह कौन सुनिश्चित करेगा?
कैसे सुनिश्चित करेगा?

सुखरोग की दवा कौन करेगा?

सुखरोग

…लीवर पर चढ़ी चर्बी

धमनियों में चिपकी चर्बी
कोलेस्ट्रॉल ने खून किया गाढ़ा . .
चेक अप की मेरी रिपोर्टें यही कहती हैं।

डाक्टर से पूछा,
“मीठा नहीं खाता
तला नहीं खाता
घी देखे जमाना हो गया
बीवी बघार में तेल नहीं पानी डालती है।
भूख से कम ही खाता हूँ।
उमर भी अभी क्या हुई !
डाक्टर ऐसा मेरे साथ कैसे हो गया?
ऐसा केस तो मैंने अब तक नहीं देखा।”

डाक्टर ने बताया ,
“तुम्हें सुखरोग हो गया है।
ज़माना बदल चुका है।
कुछ भी करो,
जब तक सही खाओगे नहीं
सही श्रम नहीं करोगे
यह सब बढ़ता ही रहेगा।
केस ऐसा क्यों नहीं देखा?
भारत देश सामने है,
अभी उसकी उमर ही क्या है?
सुखरोग को नया मेडिकल साइंस
‘भारत रोग’ कहता है।
जांनते हो क्या?”

‘सही खाना’ और ‘सही श्रम’
मैं तो कर लूँगा
लेकिन !
डाक्टर ऐसा जुमला फिर न बोले,
यह कौन सुनिश्चित करेगा?
कैसे सुनिश्चित करेगा?

सुखरोग की दवा कौन करेगा?

….रोवें देवकी रनिया जेहल खनवा

वाराणसी। अर्धरात्रि। छ: साल पहले की बात। सम्भवत: दिल्ली से वापस होते रेलवे स्टेशन पर उतर कर बाहर निकला ही था कि कानों में कीर्तन भजन गान के स्वर से पड़े:
“….रोवें देवकी रनिया जेहल खनवा”
इतनी करुणा और इतना उल्लास एक साथ। कदम ठिठक गए। गर्मी की उस रात मय ढोलक झाल बाकायदे बैठ कर श्रोताओं के बीच मंडली गा रही थी। पता चला कि शौकिया गायन है, रोज होता है। धन्य बाबा विश्वनाथ की नगरी ! रुक गया – सुनने को।
” भादो के अन्हरिया
दुखिया एक बहुरिया
डरपत चमके चम चम बिजुरिया
केहू नाहिं आगे पीछे हो हो Sss
गोदि के ललनवा लें ले ईं ना
रोवे देवकी रनिया जेहल खनवा SS”
जेलखाने में दुखिया माँ रो रही है। प्रकृति का उत्पात। कोई आगे पीछे नहीं सिवाय पति के। उसी से अनुरोध बच्चे को ले लें, मेरी स्थिति ठीक नहीं है। मन भीग गया। लेकिन गायक के स्वर में वह उल्लास। करुणा पीछे है, उसे पता है कि जग के तारनहार का जन्म हो चुका है। तारन हार जिसके जन्म पर सोहर गाने वाली एक नारी तक नहीं ! क्या गोपन रहा होगा जो बच्चे के जन्म के समय हर नारी का नैसर्गिक अधिकार होता है। कोई धाय रही होगी? वैद्य?
देवकी रो रही है। क्यों? शरीर में पीड़ा है? आक्रोश है अपनी स्थिति पर ? वर्षों से जेल में बन्द नारी। केवल बच्चों को जन्म दे उन्हें आँखों के सामने मरता देखने के लिए। तारनहार को जो लाना था। चुपचाप हर संतान को आतताई के हाथों सौंपते पति की विवशता ! पौरुष की व्यर्थता पर अपने आप को कोसते पति की विवशता !! देवकी तो अपनी पीड़ा अनुभव भी नहीं कर पाई होगी। कैसा दु:संयोग कि एक मनुष्य विपत्ति में है लेकिन पूरा ज्ञान होते हुए भी अपने सामने किसी अपने को तिल तिल घुलते देखता है – रोज और कौन सी विपत्ति पर रोये, यह बोध ही नहीं। मन जैसे पत्थर काठ हो गया हो। देवकी क्या तुम पहले बच्चों के समय भी इतना ही रोई थी ? क्यों रो रही हो? इस बच्चे के साथ वैसा कुछ नहीं होगा
” ले के ललनवा
छोड़बे भवनवा कि जमुना जी ना
कइसे जइबे अँगनवा नन्द के हो ना”
इस भवन को छोड़ कर नन्द के यहाँ जाऊँ कैसे? बीच में तो यमुना है।

“रोए देवकी रनिया जेहल खनवा SSS”
माँ समाधान देती है।
“डलिया में सुताय देईं
अँचरा ओढ़ाइ देईं
मइया हई ना
रसता बताय दीहें रऊरा के ना,
जनि मानिं असमान के बचनवा ना
रोएँ देवकी रनिया जेहल खनवा SS

जेल मे रहते रहते देवकी रानी केवल माँ रह गई है। समाधान कितना भोला है ! कितना भरोसा । बच्चे को मेरा आँचल ओढ़ा दो ! यमुना तो माँ है आप को रास्ता बता देंगी। लेकिन यहाँ से इसे ले जाओ नहीं तो कुछ हो जाएगा।

तारनहार होगा कृष्ण जग का, माँ के लिए तो बस एक बच्चा है।
आकाशवाणी तो भ्रम थी नाथ ! ले जाओ इस बच्चे को ।. . . मैं रो पड़ा था।

उठा तो गाँव के कीर्तन की जन्माष्टमी की रात बारह बजे के बाद की समाप्ति याद आ गई। षोड्स मंत्र ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।’ अर्धरात्रि तक गाने के बाद कान्हा के जन्म का उत्सव। अचानक गम्भीरता समाप्त हो जाती थी। सभी सोहर की धुन पर नाच उठते थे। उस समय नहीं हुआ तो क्या? हजारों साल से हम गा गा कर क्षतिपूर्ति कर रहे हैं।
“कहँवा से आवेला पियरिया
ललना पियरी पियरिया
लागा झालर हो
ललना . . . “
उल्लास में गवैया उत्सव के वस्त्रों से शुरू करता है।
“बच्चे की माँ को पहनने को झालर लगा पीला वस्त्र कहाँ से आया है?”
मुझे याद है बाल सुलभ उत्सुकता से कभी पिताजी से पूछा था कि जेल में यह सब? उन्हों ने बताया,
“बेटा यह सोहर राम जन्म का है।”
“फिर आज क्यों गा रहे हैं?”
“दोनों में कोई अंतर नहीं बेटा”
आज सोचता हूँ कि उनसे लड़ लूँ। कहाँ दिन का उजाला, कौशल्या का राजभवन, दास दासियों, अनुचरों और वैद्यों की भींड़ और कहाँ भादो के कृष्ण पक्ष के अन्धकार में जेल में बन्द माँ, कोई अनुचर आगे पीछे नहीं ! अंतर क्यों नहीं? होंगे राम कृष्ण एक लेकिन माताएँ? पिताजी उनमें कोई समानता नहीं !

हमारी सारी सम्वेदना पुरुष केन्द्रित क्यों है? राम कृष्ण एक हैं तो किसी का सोहर कहीं भी गा दोगे ? माँ के दु:ख का तुम्हारे लिए कोई महत्त्व नहीं !

वह बनारसी तुमसे अच्छा है। नया जोड़ा हुआ गाता है लेकिन नारी के प्रति सम्वेदना तो है। कन्हैया तुम अवतार भी हुए तो पुरुषोत्तम के ! नारी क्यों नहीं हुए ?

जय बंगलादेशी !

फूलों की मत पूछो
पूरा कूड़ेदान सजा कर रखा है।
इधर उधर कहाँ जाते हो?
कहाँ थूकोगे, कहाँ मूतोगे?
देखो, तुम्हारे बिगाड़ने को,
पूरा हिन्दुस्तान बना रक्खा है।

बेमतलब नहीं है यह !

कल रात सिद्धार्थ जी का फोन आया। मेरे लेख उनके ब्लॉग रोल पर अद्यतन नहीं हो रहे थे। इसके पहले उन्हों ने इस बारे में टिप्पणी की थी। मैंने तब दिलासा दिया था कि कुछ मिनटों के अंतर पर तीन तीन पोस्ट करने से बेचारा तंत्र कंफ्यूज हो गया होगा। हालाँकि ऐसा नहीं होना चाहिए था लेकिन हुआ। ब्लॉगवाणी और चिट्ठाजगत भी तीनों पोस्ट नहीं दिखा पाए। मुझे एक सबक मिल गया। पोस्ट थोड़ा धीरज के साथ भेजो – इतनी उतावली एक आलसी को शोभा नहीं देती |

लेकिन सिद्धार्थ जी का फोन मेरे उसके बाद की पोस्ट पर था जो ब्लॉग रोल और एग्रीगेटर पर दिख रही थी लेकिन मेरे ब्लॉग से ग़ायब थी। सिद्धार्थ जी ने बताया कि जिन लोगों ने आप के ब्लॉग को मार्क किया होगा उन सबको यह समस्या आ रही होगी। असल में एक एकवर्णी संस्कृत श्लोक मुझे कहीं रोमन में लिखा मिल गया। चुहल में उसे देवनागरी में परिवर्तित कर मैंने उसके अर्थ बताने के लिए ब्लॉगरों हेतु पोस्ट कर दिया।

लेकिन एक गड़बड़ हो गई – पोस्ट कविता वाले ब्लॉग पर करनी थी लेकिन हो गई आलसी वाले पर। जब तक त्रुटि का अनुभव किया, विलम्ब हो चुका था। एग्रीगेटर पर पोस्ट दिखने लगी थे। मैंने पोस्ट को मिटा कर कविता वाले ब्लॉग पर दे दिया लेकिन एग्रीगेटर पर पोस्ट दिखती रही और सुधी जन के ब्लॉग रोल पर भी। क्या इसकी कोई राह है कि पोस्ट मिटा देने पर ब्लॉग रोल और एग्रीगेटर पर दिखनी बन्द हो जाय ?

एक सबक और मिला – कभी पोस्ट को मिटाओ नहीं और बाकी लोगों का ध्यान रखते हुए सतर्क होकर पोस्ट करो। इस पोस्ट को मेरी क्षमा प्रार्थना समझें और सम्बद्ध पोस्ट यहाँ पढ़ें – बेमतलब नहीं है यह !

बेमतलब नहीं है यह !

इन संस्कृत पंक्तियों का अर्थ बताइए।

सुविधा के लिए संधियों को तोड़ दिया गया है:

___________________________

दददो दुद्दा-दुद्-ददि

दददो दुद-दी-आद-दो:

दु-ददम् दददे दुद्दे

दद्- अदद-ददो’द-द:॥

___________________

बेमतलब नहीं है यह !

इन संस्कृत पंक्तियों का अर्थ बताइए।

सुविधा के लिए संधियों को तोड़ दिया गया है:

___________________________

दददो दुद्दा-दुद्-ददि

दददो दुद-दी-आद-दो:

दु-ददम् दददे दुद्दे

दद्- अदद-ददो’द-द:॥

___________________

हरी तुम हरो जन की भीर…

“सखी मोरि नींद नसानी हो
पिय को पंथ निहारत सगरी रैना बिहानी हो।
सखियन मिलकर सीख दई मन, एक न मानी हो।
बिन देख्यां कल नाहिं पड़त जिय, ऐसी ठानी हो।
अंग-अंग ब्याकुल भई मुख, पिय पिय बानी हो।”
करुणा की शुद्धता और अनुभूति की सान्द्रता क्या होती हैं, जानना है तो उपर्युक्त पद गाएँ या वसुन्धरा और कुमार गन्धर्व की इस पद की प्रस्तुति सुनें।

गेय परम्परा द्वारा जन जन को कृष्णमय कर देने वाली मीरा ! पुरुष प्रधान सामंती दौर में भी निष्छल, नि:स्वार्थ प्रेम का अलख जगाती मीरा ! जन की पीर से अपनी पीर को जोड़ती मीरा ! ..

मीरा के न जाने कितने रूप सामने आते हैं। लेकिन सबमें एक बहुत ही सरल भक्त नारी अत्यंत उच्च भावभूमि में घूमती जन की चिंता करती नजर आती है। यह और महत्त्वपूर्ण तब हो जाता है जब हम यह पाते हैं कि अत्यंत गर्वीले राजवंश की वह बहू थीं और सारे बन्धन तोड़ अपने नटनागर के लिए सरेआम नाची थीं।
“हरी तुम हरो जन की भीर
द्रौपदी की लाज राखी तुरत बाढ्यो चीर”
‘तुरत’ की जगह ‘चट’ शब्द भी मिलता है। दोनों समानार्थक हैं। प्रसंग है उस समय फैली महामारी का जिससे सभी त्रस्त थे। सामान्यत: लोग इसे दृष्टांत मान कर सरलार्थ कर देते हैं। बात ऐसी नहीं है।
मीरा यहाँ नटनागर को उलाहना दे रही हैं। राजरानी द्रौपदी के लिए इतनी जल्दी और आम जन के लिए सुस्ती? भक्ति और कीर्तन चाहिए तब पिघलोगे? जब कि सारे लोग लुगाई आपदा के कारण त्राण में हैं?

आगे की पंक्तियों:
“भगत कारण रूप नर हरि, धरयो आप समीर
हिरण्याकुस को मारि लीन्हो, धरयो नाहिन धीर”
में उलाहना और सघन होती है। प्रह्लाद जो कि एक राजकुमार थे, उनके लिए तो धैर्य नहीं दिखाया तुमने? नरसिंह बन गए!
मीरा आगे गजराज का सन्दर्भ दे जैसे अपने कन्हैया को याद दिलाती हैं कि सामान्य पशुओं तक पर तुमने करुणा की है। ये दु:खी जन क्या उनसे भी गए बीते हैं?

“बूड़तो गजराज राख्यो, कियौ बाहर नीर।”
………….
“अंतर बेदन बिरहकी कोई, पीर न जानी हो।
ज्यूं चातक घनकूं रटै, मछली जिमि पानी हो।
मीरा ब्याकुल बिरहणी, सुध बुध बिसरानी हो।”
कुछ करो, तारो, दु:ख हरो नाथ। बिरहिनी ब्याकुल है ! सुध बुध खो बैठी है। मीरा की अपनी पीड़ा और जन की पीड़ा दोनों की अभिव्यक्ति में भावभूमि की कितनी समानता है!

जन पर भीर आ पड़ी है। इस रूप में भी पधारो नाथ, इस पीड़ा के दंश से मुक्ति दो।

कहते हैं प्रार्थना की सान्द्रता से कन्हैया रीझ उठे थे। महामारी का शमन हो गया। भक्त कवियों का यह जनवादी रूप ! मैं तो वारा इन पे।
…………..
मन में सुब्बलक्ष्मी का स्वर गूँज रहा है:
“कोई कहियो रे प्रभु आवन की
आवन की मनभावन की
कहियो कहियो कहियो रे प्रभु आवन की”
मैं अब और कुछ नहीं लिख सकता।

हरी तुम हरो जन की भीर…

“सखी मोरि नींद नसानी हो
पिय को पंथ निहारत सगरी रैना बिहानी हो।
सखियन मिलकर सीख दई मन, एक न मानी हो।
बिन देख्यां कल नाहिं पड़त जिय, ऐसी ठानी हो।
अंग-अंग ब्याकुल भई मुख, पिय पिय बानी हो।”
करुणा की शुद्धता और अनुभूति की सान्द्रता क्या होती हैं, जानना है तो उपर्युक्त पद गाएँ या वसुन्धरा और कुमार गन्धर्व की इस पद की प्रस्तुति सुनें।

गेय परम्परा द्वारा जन जन को कृष्णमय कर देने वाली मीरा ! पुरुष प्रधान सामंती दौर में भी निष्छल, नि:स्वार्थ प्रेम का अलख जगाती मीरा ! जन की पीर से अपनी पीर को जोड़ती मीरा ! ..

मीरा के न जाने कितने रूप सामने आते हैं। लेकिन सबमें एक बहुत ही सरल भक्त नारी अत्यंत उच्च भावभूमि में घूमती जन की चिंता करती नजर आती है। यह और महत्त्वपूर्ण तब हो जाता है जब हम यह पाते हैं कि अत्यंत गर्वीले राजवंश की वह बहू थीं और सारे बन्धन तोड़ अपने नटनागर के लिए सरेआम नाची थीं।
“हरी तुम हरो जन की भीर
द्रौपदी की लाज राखी तुरत बाढ्यो चीर”
‘तुरत’ की जगह ‘चट’ शब्द भी मिलता है। दोनों समानार्थक हैं। प्रसंग है उस समय फैली महामारी का जिससे सभी त्रस्त थे। सामान्यत: लोग इसे दृष्टांत मान कर सरलार्थ कर देते हैं। बात ऐसी नहीं है।
मीरा यहाँ नटनागर को उलाहना दे रही हैं। राजरानी द्रौपदी के लिए इतनी जल्दी और आम जन के लिए सुस्ती? भक्ति और कीर्तन चाहिए तब पिघलोगे? जब कि सारे लोग लुगाई आपदा के कारण त्राण में हैं?

आगे की पंक्तियों:
“भगत कारण रूप नर हरि, धरयो आप समीर
हिरण्याकुस को मारि लीन्हो, धरयो नाहिन धीर”
में उलाहना और सघन होती है। प्रह्लाद जो कि एक राजकुमार थे, उनके लिए तो धैर्य नहीं दिखाया तुमने? नरसिंह बन गए!
मीरा आगे गजराज का सन्दर्भ दे जैसे अपने कन्हैया को याद दिलाती हैं कि सामान्य पशुओं तक पर तुमने करुणा की है। ये दु:खी जन क्या उनसे भी गए बीते हैं?

“बूड़तो गजराज राख्यो, कियौ बाहर नीर।”
………….
“अंतर बेदन बिरहकी कोई, पीर न जानी हो।
ज्यूं चातक घनकूं रटै, मछली जिमि पानी हो।
मीरा ब्याकुल बिरहणी, सुध बुध बिसरानी हो।”
कुछ करो, तारो, दु:ख हरो नाथ। बिरहिनी ब्याकुल है ! सुध बुध खो बैठी है। मीरा की अपनी पीड़ा और जन की पीड़ा दोनों की अभिव्यक्ति में भावभूमि की कितनी समानता है!

जन पर भीर आ पड़ी है। इस रूप में भी पधारो नाथ, इस पीड़ा के दंश से मुक्ति दो।

कहते हैं प्रार्थना की सान्द्रता से कन्हैया रीझ उठे थे। महामारी का शमन हो गया। भक्त कवियों का यह जनवादी रूप ! मैं तो वारा इन पे।
…………..
मन में सुब्बलक्ष्मी का स्वर गूँज रहा है:
“कोई कहियो रे प्रभु आवन की
आवन की मनभावन की
कहियो कहियो कहियो रे प्रभु आवन की”
मैं अब और कुछ नहीं लिख सकता।