अड़बड़िया कड़बड़

गहन चलो
काला पहन चलो
मन चलो
  उजले कफन चलो।



धंसती है लीक 
बहके कदम चलो 
रस्ते पे वे
पटरी सहम चलो
हँसते हैं गाल
आँखों बहम चलो।

ऊँची उनकी नाक 
रस्ते नमन चलो

पूछे हैं वो
हाले कहन चलो
करनी है बात
जीभे कटन चलो
ना सुनें जो वो
चुपके निकल चलो।

दूरी है क्या 
पाथे बिखर चलो

देखे हैं वे
अन्धे !ठहर चलो
न तलवे जमीन
चप्पल पहन चलो।

गोल गोल दिखते 
नज़रें उठन चलो

सिकोड़ी जो नाक
नजरें झुकन चलो
पापी दिमाग
कोंचे बहम चलो।

adbadiya
शरम का बहम
दिखता अहम चलो
काला पहन चलो
मनचलों !

अड़बड़िया कड़बड़

गहन चलो
काला पहन चलो
मन चलो
  उजले कफन चलो।



धंसती है लीक 
बहके कदम चलो 
रस्ते पे वे
पटरी सहम चलो
हँसते हैं गाल
आँखों बहम चलो।

ऊँची उनकी नाक 
रस्ते नमन चलो

पूछे हैं वो
हाले कहन चलो
करनी है बात
जीभे कटन चलो
ना सुनें जो वो
चुपके निकल चलो।

दूरी है क्या 
पाथे बिखर चलो

देखे हैं वे
अन्धे !ठहर चलो
न तलवे जमीन
चप्पल पहन चलो।

गोल गोल दिखते 
नज़रें उठन चलो

सिकोड़ी जो नाक
नजरें झुकन चलो
पापी दिमाग
कोंचे बहम चलो।

adbadiya
शरम का बहम
दिखता अहम चलो
काला पहन चलो
मनचलों !

पुरानी डायरी से – 5 : धूप बहुत तेज है।

07 जून 1990, समय: नहीं लिखा                                                     

                                                                                                                               ‘धूप बहुत तेज है’


इस लाल लपलपाती दुपहरी में
काले करियाए तारकोल की नुकीली
धाँय धाँय करती सड़कों पर
नंगे पाँव मत निकला करो
क्यों कि
धूप बहुत तेज है।


लहू के पसीने से नहा कर  
तेरी शरीर जल जाएगी इन सड़कों पर ।
लद गए वो दिन
जब इन सड़कों की चिकनाई
देती थी प्यार की गरमाई।
बादलों की छाँव से
सूरज बहुत दूर था।
मस्त पुरवाई के गुदाज हाथ
सहला देते थे तेरे बदन को ।


आज सब कुछ लापता है
क्यों कि 
धूप बहुत तेज है।


सुबह के दहकते उजाले में
तीखी तड़तड़ाती आँधी                                      (मुझे याद आ रहा है कि ये पंक्तियाँ किसी दूसरे की कविता से ली गई थीं)
भर देती है आँखों में मिर्च सी जलन।
छटपटाता आदमी जूझता है अपने आप से।
काट खाने को दौड़ता है अपने ही जैसे आदमी को। 


नहीं जानता है वह
या जानते हुए झुठलाता है
कि
सारा दोष इस कातिल धूप का है।


निकल पड़ो तुम 
इस धूप के घेरे से।
क्यों कि यह धूप !
नादानी है
नासमझी है।
क्यों कि
तेरे मन के उफनते हहरते सागर के लिए
यह धूप बहुत तेज है।
धूप बहुत तेज है।

पुरानी डायरी से – 6 : क्या गाऊँ मैं गीत

5 अप्रैल 1993, समय: सन्ध्या 06:45                                                                क्या गाऊँ मैं गीत

मेरे मन के मीत
क्या गाऊँ मैं गीत।


धुएँ में जीता श्मशान
चलती लाशें लोग।
कागज के इन फूलों में
उलझी सारी प्रीत।
क्या गाऊँ मैं गीत ?


उजली रात-तिमिर विहान
अन्धा जीवन भोग !
कितना सुख है शूलों में,
दु:खी बुद्ध हैं भीत।
क्या गाऊँ मैं गीत?


मेरे मन के मीत। 

पुरानी डायरी से – 6 : क्या गाऊँ मैं गीत

5 अप्रैल 1993, समय: सन्ध्या 06:45                                                                क्या गाऊँ मैं गीत

मेरे मन के मीत
क्या गाऊँ मैं गीत।


धुएँ में जीता श्मशान
चलती लाशें लोग।
कागज के इन फूलों में
उलझी सारी प्रीत।
क्या गाऊँ मैं गीत ?


उजली रात-तिमिर विहान
अन्धा जीवन भोग !
कितना सुख है शूलों में,
दु:खी बुद्ध हैं भीत।
क्या गाऊँ मैं गीत?


मेरे मन के मीत। 

कुकविता

तुम्हारे खामोश कान
तुम्हारी बहरी जुबान 
मुझे चेताते हैं – चुप रहो।
लेकिन शायद तुम्हें नहीं पता
खामोशी की बदबू
ठुस्की से भी खराब होती है।
मुझे बदबू से चिढ़ है।
इसलिए 
मुझे चुप नहीं कराया जा सकता !


जब तुम मुझे देखते हो 
तो तुम्हारी आँखों से 
बास निकलती दिखाई देती है।
मैं नाक सिकोड़ता हूँ 
और तुम्हें लगता है कि 
मुझे तुम्हारी बात से इत्तेफाक नहीं!
अरे, इत्तेफाक का सवाल तो सुनने के बाद आता है !
मेरे कान बहरे हैं
और 
जुबान चलती है।


मेरे यहाँ सीधा हिसाब चलता है।


मैं चिल्लाऊँगा – पेट से
मेरी चिल्लाहट समा जाएगी 
तुम्हारी कब्ज ग्रस्त अंतड़ियों में 
और तुम टॉयलेट की ओर दौड़ पड़ोगे
चिंतन करने ? 
नहीं अपनी सड़ांध निकालने। 
तुमने मुझे इसबगोल बना दिया है !


अपने अन्दर की सडाँध को याद रखो
बहुत प्रेम है न तुम्हें उससे? 
लेकिन यह भी याद रखो 
कि 
इसबगोल का यह पैकेट कभी खत्म नहीं होगा !….
सा…

कुकविता

तुम्हारे खामोश कान
तुम्हारी बहरी जुबान 
मुझे चेताते हैं – चुप रहो।
लेकिन शायद तुम्हें नहीं पता
खामोशी की बदबू
ठुस्की से भी खराब होती है।
मुझे बदबू से चिढ़ है।
इसलिए 
मुझे चुप नहीं कराया जा सकता !


जब तुम मुझे देखते हो 
तो तुम्हारी आँखों से 
बास निकलती दिखाई देती है।
मैं नाक सिकोड़ता हूँ 
और तुम्हें लगता है कि 
मुझे तुम्हारी बात से इत्तेफाक नहीं!
अरे, इत्तेफाक का सवाल तो सुनने के बाद आता है !
मेरे कान बहरे हैं
और 
जुबान चलती है।


मेरे यहाँ सीधा हिसाब चलता है।


मैं चिल्लाऊँगा – पेट से
मेरी चिल्लाहट समा जाएगी 
तुम्हारी कब्ज ग्रस्त अंतड़ियों में 
और तुम टॉयलेट की ओर दौड़ पड़ोगे
चिंतन करने ? 
नहीं अपनी सड़ांध निकालने। 
तुमने मुझे इसबगोल बना दिया है !


अपने अन्दर की सडाँध को याद रखो
बहुत प्रेम है न तुम्हें उससे? 
लेकिन यह भी याद रखो 
कि 
इसबगोल का यह पैकेट कभी खत्म नहीं होगा !….
सा…

एक बकवासमय टिप्पणी

हम यहाँ पर निम्नलिखित टिपियाए हैं: 

ये जमाना मूर्तिमान उलटबाँसी है। 
गिद्ध खतम हो गए, 
दुष्ट कबूतरों के शहरों पर हमले हैं। ..


बरतन मॉल की रसोई में खड़कते हैं।..
मॉल के सामने सड़क पर
ईंट बिछौना ईंट तकिया डाल
हेल्पर सोते हैं।  


राजनीति में नीति नहीं
जन में विद्रोह नहीं 
आप जनद्रोहिता की बात करते हैं ! 


कैसा धर्म कैसा साम्राज्य

आज कल के अशोक भी
धर पकड़ के समर तले 
जय जय करते हैं। 
किसकी?
वही तो ! 
अरे वही तो पेंच है !
+++++++++++