तुम सुन्दर हो

सब कह गये सब कुछ तुम्हारी प्रशंसा में,
कुछ भी न बचा

मैं कहता हूँ – तुम सुन्दर हो,
इतनी सादी ईमानदारी से किसी ने न कहा
इतनी ईमानदार शादगी से किसी ने न कहा!

…वे आयेंगे

वे आयेंगे, जब गीत मुरझायेंगे
होठों को सिकोड़ देंगी झुर्रियाँ
और नैन सूख जायेंगे, वे आयेंगे
मुस्कुराते हुये गायेंगे मुकरियाँ
और हम न समझ पायेंगे!

वो और रोटी चटनी स्वाद

वो ढूँढ़ ही लेती है
चटनी के उद्यम सामान
और तुम पाते हो
उसी रोटी में एक नया स्वाद।
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(चित्र स्रोत आभार: http://smalltowndiary.wordpress.com/2010/09/01/sil-batta/)

इस ठंड की आदत नहीं ये आनी जानी है 
शिकायतों सिसकियों में बस यही आसानी है।
ठिठुरते आह भरते हम सिहरते हैं 
गुलदश्ते आते जाते हैं हम बस वैसे ही रहते हैं 
कालिख पुते चेहरे पर पंखुड़ियाँ सजानी हैं 
गिरें धूल में कुचलें पाँव तले यही कहानी है।  

नैहर आने से पहले कुछ बेटियाँ

नैहर आने से पहले कुछ बेटियाँ 

अब भी लिखती हैं अंतर्देसी चिट्ठियाँ।

बाबा धुलने को दे देते हैं
गन्दी अपनी धोतियाँ।
मोर्ही वाली छोड़ एक ग़ायब हो जाती हैं सभी
ताखे पर बिखरी किसिम किसिम की चुनौटियाँ
मुस्कुराते घूमते हैं कभी इधर कभी उधर
चुपके चुपके सहेजते हैं कहने को ढेरों कहानियाँ।
ईया गिरते केशों में 
फेरने लगती हैं कंघियाँ।
ढील खुजली हेरन बातों में बकबक फेरन को
माज माज मन चमकाती हैं मन मन भारी गालियाँ
जतन भर सँवारती हैं टुटहे बक्से में रखे आशीष
लेकिन नहीं भूलती हैं छिपाना अपनी बालियाँ।
ले खरहरा जाला मारें
पापा झाड़ें खिड़कियाँ।
पिटती है धौंक कुदारी दुअरा पर मोथा छीलन को
उमड़ उछाह देख पलायित बिदाई वाली सिसकियाँ
झोला भर लाते पापड़ चिउड़ा सिरका अमचूर
पूछ पूछ तस्दीकें घरनी से कैसे बनती हैं मछलियाँ?
पोते चेहरे की झाँइयों पर
छिपा बहुओं से लभलियाँ।
जोर जुटा जमा ठसक हो जाती है जवाँ पुन:
याद दिलाने लगती घरनी सुघर सराही झिड़कियाँ
कड़वी जीभ से परखे सब नकचढ़ ज़िद्दी मोर धिया          
छोड़ देती है तवे पर माँ फुलाना रोटियाँ।
  
गिनने लगते हैं मनसुख काका
चेहरे पर की झुर्रियाँ।
खिचड़ी मूँछ आवारा बाल चुभते हैं आँखों में
बात बेबात हजामत में देने लगते हैं झिड़कियाँ
बारी के सबुजा आम टिकोरे कीमती कचहरी कागद से
काटने को कच्चे कचालू चमकाने लगते हैं छूरियाँ। 
सहमने लगती हैं यूँ ही –
ननद के भाइयों से उसकी भाभियाँ
जब पढ़ती हैं चिकोटती सी चिट्ठियाँ। 


नैहर आने से पहले कुछ बेटियाँ
अब भी लिखती हैं अंतर्देसी चिट्ठियाँ। 

शांती बेवस्था बनाये रखिये।

शांती बेवस्था बनाये रखिये। 
“घुसपैठ भई तो सेना क्या कर रही थी?”खबीश को ये पूछने दीजिये। 
मने कि लाख टके का कोश्चन है, करने दीजिये।
खुद अपने को भूलने दीजिये।
मूड़ काटने वाले को काटने दीजिये। 
लैनतोड़वा को आगे से टीकस लेने दीजिये। 
घूस देते रहिये, काम चलाते रहिये।
मौका मिलने पर कमरा ओढ़ घीव पीते रहिये। 
परधान को सब ठीक है कहने दीजिये।
उनको फिर फिर गद्दी बैठाते रहिये 
और बेवस्था को गरियाते रहिये। 
शांती बेवस्था बनाये रखिये!

बस!

कभी ऐसा भी होता है कि
शब्द खोने लगते हैं
और मन हो जाता है
क्षितिजहीन सपाट पठार;
मैं खोये को पाने को
अस्तित्त्वहीन क्षितिज से घिर जाने को
कुछ लिखता हूँ,
जो काव्य नहीं होता।
अपने क्षितिज से जोड़ उसे
न पूछो प्रश्न
न करो कोशिश
हरियाली की समस्यायें
रोपने को पठार पर।
उस कुछ में समाधान नहीं होता
उस कुछ से समाधान नहीं होता
वह बस खोये को पाने को है
वह क्षितिज तक जाने को है – बस!

विचारक, योद्धा, क्रांतिकारी

विचारक – 
गहन निशा में जब भूख तक सो जाती है
वे जगते हैं, आहट अकनते हैं
और
दिन में सुने किसी पागल के प्रलाप से 
कुछ शब्द निकाल, जोड़, तोड़ 
एक भय रचते हैं।
उस भय के कारण हुये हृदयाघात से
वे मुर्दों में बदलते हैं।  
योद्धा –
अफीम की पिनक में उठते हैं 
बाँधते हैं मुर्दों की छातियों से निकाली
हड्डियों के कवच
और निकालते हैं शब्दभेदी कठुवाये 
शब्दअसि किंवा तलवार! 
वार पर वार   
वे उस भय से लड़ते हैं 
उनकी तलवारें टिठुरती हवा को चीरती 
सन्न सन्न करती हैं। 
उन्हें ओस रक्त के छींटों सी लगती है 
जिसे गर्म करने को वे चिल्लाते हैं
और यह सिद्ध करने को कि शत्रु थे
और युद्ध हुआ,
और भीषण हुआ;
वे तलवारें भोंक लेते हैं खुद में
और यूँ शहीद हो जाते हैं।

क्रांतिकारी-
सामंती सुघरता से अलग  
सुन्दर सधे कलात्मक अक्षरों में
पोस्टर बनाते हैं –
एक हाथ में विचारक पोस्टर  
दूसरे हाथ में योद्धा पोस्टर 
दीवारों पर चिपकाते पोस्टर 
सड़क के बीच
स्वयं को शहीदों की आत्माओं से
जोड़ते हैं
और बोलते हैं धावा
उसी भय के विरुद्ध।
वे अपनी जान भर 
अपनी रात भर 
दौड़ते रहते हैं।  
और मैं कैसे बताऊँ कि 
तमाम विचारकों
योद्धाओं और 
क्रांतिकारियों के होते हुये भी 
क्रांति कभी हो क्यों नहीं पाती!