कहना

वो जीने को काम तमाम कहना
मैं सुबह कहूँ तो शाम कहना
खुश होना और बहुते खराब कहना
थे सलामी को राजी वे पहली नज़र
मैंने देरी से जाना आदाब कहना! 

सी!

छन छपी है धूप बगीची बीच सुबह सुबह
निफूले हरसिंगार तले तुम्हारी हँसी सी!
टँगी ओस अदद एक शमी की झुकी पत्ती पर 
सद्य:स्नात केश बूँद अकेली नयनाँ बसी सी!
उजली जमीं फेंक गया कोई लाल फूल कनैल तले
टोने टोटके वारी सब गोरे हाथ मेंहदी कसी सी

घर से भागे रूठे बच्चों की तरह

तुम्हारी स्मृतियाँ –
घर से भागे रूठे बच्चों की तरह।
जब आती हैं वापस
घर सँवरता है
बनते हैं तरह तरह के पकवान।
डाइनिंग टेबल पर जो धूल थी ही नहीं;
पोंछ दी जाती है।
नमकदानी की सीलन
ग़ायब होती है।
स्वाद छिड़कने को
मिर्चदानी उठाई जाती है।
भोजन के बाद
थाली की जूठन में
चित्रकारी करती हैं अंगुलियाँ
लिखती हैं एक नाम
और
स्मृतियाँ
चली जाती हैं डिनर के बाद-
उन्हीं रूठे बच्चों की तरह।
वही पुरानी शिकायत-
नाम ग़लत क्यों लिखा?

महुवा

झुकी घनेरी केशराशि
महुवा फूले बरगद गाछ।
महुवा महुवा – साँसें बोझिल
महुवा महुवा – थकी देह
महुवा महुवा मद – मचले मन
महुवा महुवा – गेह गेह!

उमसते प्रात में साँवरी

प्रातकी सूख गई,
केश तुम्हारे हुये गीले
नयनों ने चित्र टाँके,
फूल छिटके नील पीले।

अधर लाली खुल गई,
श्वेत बेला झाँकती
गन्ध मधुरा साँस दहका
निकटता राँधती।


साँवरे कपोल मस्तक,
ओस फूटे स्वेदकूप
रक्त चन्दन ऊष्ण उमगे
रूपसी रूप रूप।

थम गयी कामना,
निहारती आराधना
देह भीगे ग्रीष्म सी,
शीत सम सम्भावना।