रूप और प्रात, दुपहर, साँझ, रात

प्रात की लाली बदन पर पोत लूँ
दुपहरी उजाले नयन भर समेट लूँ
साँझ के प्याले अधर रस सोख लूँ।
सज गया जो रूप सुन्दर,
निहार लूँगी।
रात अँधेरी आरसी में,
रूप निहार लूँगी॥

खन खन सिक्कों जैसा।

मैं पंखों के रंग भरे कंटूर दिखाता रहा

वह पिजरे का दाम मोलाता रहा। 
सौदे के बाद बोला आप की बातें भी कविता होती हैं।

उस दिन से मैं अर्थ का अर्थ करने में लगा हूँ 
वह प्रसन्न है कि पाखी बोलता है – खन खन सिक्कों जैसा।

सबसे ऊपर अब भी संडास है।

धनिया उदास है, पानी की तलाश है
कपड़े पर दाग है
न उठता झाग है
न बनता साग है
रहता कच्चा भात है, धनिया उदास है।

गोबर खाद है, ऑर्गेनिक नाम है
बड़का दाम है
खेती नाकाम है
बढ़ गया काम है
फोकट दाम है, गोबर खाद है।

धनिया उदास है, नीति बकवास है
सरकार नाग है
सिमटा लाभ है
घटती माँग है
पूर्ति अभिलाष है, धनिया उदास है।

धनिया बहलाने को, गोबर दुलराने को
धनिया सहलाने को, बैठक आज खास है
तेज सबकी साँस है
धनिया सु-दास है
गोबर की आस है
थरिया उपास है
करने को बकवास है, बैठक आज खास है।

हवा में बास है कि मन में आस है
समझ नहीं आता समझता खास है
बउरा गया आम
भरता उसाँस है
उदास इजलास है
कुत्तों ने उतार ली, चादर चाम है
चीर फाड़ चट्ट का, सुन्दर नाम है।

बात बताने को, इशारे समझाने को
लंगोटी पहनाने को, नंगई भुलवाने को
कविया संडास है
हगता भँड़ास है
कमरा गन्धास है
बाहर फुलवास है
पागलपंथी छोड़ कर, पहुँचा विभाग है
बैठक जमी बकवास, लग गया दिमाग है।

तो अंत में क्या बचा?
तो अंत में क्या रहा?
एक नाम दुइ काम, धनिया अब भी उदास है।
गोबर खाद है
बकवास है
बैठक खास है
सरकार नाग है
सिमटा लाभ है
घटती माँग है।

दिमाग है तो मत कहो कि अब भी
हाँ, अब भी – थरिया उपास है
वरना फिर से फिर फिर
इजलास है
बैठक आज खास है
तेज सबकी साँस है
गन्धास है
सबसे ऊपर अब भी संडास है।

कितना बड़ा??

जनवरी से लेकर दिसम्बर तक

छत और दीवारें मय तीन गुम्बद ज़िन्दा हैं।

12 बजे से लेकर 12 बजे तक ज़िन्दा हैं,
मसें भीगती जवानी से लेकर हँसिया हथौड़ा बुढ़ाई तक जिन्दा हैं,
विभाग की राजनीति से लेकर दीवार की क्रांति तक जिन्दा हैं,  
सँड़ास के वेग से प्रोस्टेट के संकोच तक जिन्दा हैं,
महीने के उन खास दिनों से लेकर निश्चिंत मुक्ति तक ज़िन्दा हैं।
मुझे आश्चर्य होता है कि बिखरी जीवन्तता अथाह
बहती है नालों में, बजबजाती है नालियों में –
फिर भी!
फिर भी!!
यह देश मरता क्यों जा रहा है?
कितना बड़ा मकबरा चाहिये –
इन जीवंत आत्माओं को दफनाने को क़यामत तक?
कितना बड़ा??

एक काम रचना i.e. An Erotica

अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में एक काम रचना (erotica) प्रस्तुत है। आप को यह बताना कि कौन सी मूल है और कौन सी अनुवाद?  अंग्रेजी और हिन्दी के क्रम बारी बारी से उलट दिये हैं ताकि मन किसी एक भाषा के पक्ष में केवल क्रम के कारण न हो जाय! 
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चूमा है जब भी मैंने तुम्हारे अधरों को Whenever I have kissed your lips
I have sensed openings somewhere else तुम्हें कहीं और खुलते पाया है
तुम्हारे निमंत्रित करते सुन्दर उरोज your inviting beautiful breasts
hide behind long black hair छिप जाते हैं प्रलम्ब कृष्ण केशराशि के पीछे
कई बार मेरी आँखों ने उन्हें सहलाया है many a times my eyes have caressed them.
many a times you have closed yourself कई बार तुमने स्वयं को गोपन किया है –
मेरी गोद में, मेरी बाहों में in my bosom, my arms
but never opened yourself लेकिन स्वयं नहीं हुई अनावृत्त कभी
मैं हमेशा चकित होता हूँ I marvel always
lips are open, breasts are open होठ खुले हैं, स्तन खुले हैं
यहाँ तक कि जघनस्थल भी है अनावृत्त even thighs are open
but you remain closed किंतु तुम बनी रही हो गोपन
विचित्र बात! शरीर अनावृत है queer ! the body is open 
and the mind is closed. और मन गोपन है। 

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चित्रों पर उनके फोटोग्राफर का कॉपीराइट है। इन पर न तो कोई मेरा अधिकार है और न ही स्वामित्त्व। ये यहाँ केवल रचना को सवर्णी रूप देने के लिये प्रयुक्त किये गये हैं।

माधुरी! भय है, संशय है, जय है


रक्त तप्त प्याले में माधुरी है। 
मधुसुख के पहले हाथ होठ जलने का भय है। 
जले होठों की औषधि भी होती है? संशय है।
वे कहते हैं भय के आगे ही जय है। 

घन आये इस रात सुहावन

घन आये इस रात सुहावन,
मन रे कोई गीत रचो
रीति नहीं अनीति सही,
सावन का संगीत रचो।
क्षिति जल पावक गगन सब रूठे
पवन झँकोरे गाछ गज ठूँठे
देह थकित दाह ज्वर छ्न छ्न,
धावन पग पथ साथ गहो
थोड़े थोड़े पास रहो।
सूखा पड़ा टिटिहरी दुखिया
कोस थकी बेमतलब दुनिया
बच्चे बढ़ते अंडज चिक चिक,
उड़ने को गम्भीर सुरों!
झंझ मृदंग उठान वरो।
करुणा उगलें तिमिर लहरियाँ
आतप तप कुम्हलाई बगियाँ
प्रार्थना के फूल लोप फिर,
अँसुअन सीझी दीठ बचो
सावन का संगीत रचो।

घन आये इस रात सुहावन

घन आये इस रात सुहावन,
मन रे कोई गीत रचो
रीति नहीं अगीति सही,
सावन का संगीत रचो।
क्षिति जल पावक गगन सब रूठे
पवन झँकोरे गाछ गज ठूँठे
देह थकित दाह ज्वर छ्न छ्न,
धावन पग पथ साथ गहो
थोड़े थोड़े पास रहो।
सूखा पड़ा टिटिहरी दुखिया
कोस थकी निरर्थक मुनियाँ
बच्चे बढ़ते अंडज चिक चिक,
उड़ने को गम्भीर सुरों!
झंझ मृदंग उठान वरो।
करुणा उगलें तिमिर लहरियाँ
आतप तप कुम्हलाई बगियाँ
प्रार्थना के फूल लोप फिर,
अँसुअन सीझी दीठ बचो
सावन का संगीत रचो।

गुंजलक

शुभकामना सन्देश स्पैम बॉक्स में संख्या बढ़ाते हैं
स्वयं नहीं जाते तो भेज देता हूँ और सहमता हूँ
कहीं कोई सच्चा सन्देश तो नहीं चला गया उधर?
कहीं किसी शुभ की हत्या तो नहीं कर दी मैंने?
क्या करूँ कि मुझे सड़कों पर रोजमर्रा की वहशत दिखाई देती है?
क्या करूँ कि मुझे सड़कों पर रोजमर्रा की दहशत दिखाई देती है?
मैं क्या करूँ कि मेरे हाथ कई दिनों तक हटाते रहते हैं वह पत्थर
जिसे सड़क पर छोड़ दिया था किसी ने टायर बदलने के बाद?
मैं क्या करूँ कि होता रहता है हमेशा एहसास
कि मेरी ज़िन्दगी में कोई स्टेपनी नहीं –
खुद को देखता हूँ हजारो हजार सड़क भर भटकते।
क्या करूँ कि मुझे हो गई है स्थायी झुँझलाहट –
पत्थर उठा कर उस एस यू वी का नहीं तोड़ा कोई काँच एक?
स्याह शीशों के पीछे छिपे काले गुमनाम नामवर चेहरे
मुझे घूरते रहते हैं और मैं उन्हें देख तक नहीं पाता
मेरा संतुलन बिगड़ गया है,
क्या करूँ कि मुझे हमेशा चक्कर रहने लगे हैं?
मैं वह अकेला हूँ जिस पर अनुग्रह यूँ ही नहीं बरसते।
जब हजार लोगों की जमीन कब्जा होती है
जब बनता है दूसरे हजार लोगों की मौज को एक माल
तो मुझ पर गिरता है एक अनुग्रह।
गन्दी गली का मेरा मकान
अचानक ही राजमार्ग पर आ जाता है।
छत दबाती है मुझे, दीवारें सिकुड़ कर पीसती हैं
राजमार्ग के शोर से मेरी नींद हवा हो जाती है
मैं अचानक ही वी आई पी हो जाता हूँ –
मुहल्ले में पहले से और अकेला।
मेरे संगी हजार लोग हैं कोर्ट की फाइलों में पीलिया ग्रस्त
मैं रोगी हो गया हूँ।
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अच्छा  लगता है बीमार होना
कुछ दिन पड़े रहना कि
न खुद से खुद को कुछ उम्मीद रहे
और न दूजों को।
होता रहे यूँ ही खुदाई दीदार बराबर
भीतर मद्धिम आँच पर
कुछ पकता रहे बराबर –
अच्छा लगता है कुछ दिन
निज साँसों की महक का बदल जाना
जीने का अनुभव होता है नया
घट सकता है नया नित रोज –
तब भी जब कि बिस्तर पर पड़े रहें
और साँसें  तप्त होती रहें।
यह भान होता रहे
कि गरमी के सामान बाहर ही नहीं
भीतर भी हैं
और
गरमी चाहे जैसी हो
खुद ही झेलनी होती है।
झेलने की ताब बची है – अच्छा लगता है यह जानना।