न कुछ कह पाया है



मिलने पर तमाम बन्दिशें हाल-ए-दिल पुछवाया है 
देखे भी जो बयाँ न हो उसको अच्छा कहलाया है।

पीछे छूटा लम्बा रस्ता पाँव चले जो दूर तक 
आगे की राहें मामूली कह कह खुद बहलाया है। 

गठरी की गाँठें मामूली भूल चुका अब खोले कैसे 
दवा बिना सूजे घावों को बस हाथों से सहलाया है।

न पढ़ना मेरी पाती को ऊपर झूपर लख लेना 
जिस सच को कह न पाया आखर आखर झुठलाया है।

घड़ी घड़ी तारीखें बदलें चार घड़ी की ज़िन्दगी
वक्त बेगैरत कठिन नजूमी कौन सही कह पाया है

 मगरूर मसाइल तमाम ज़िन्दगी छ्न्द पड़ गये छोटे हैं
चीख भरी खामोशी पर शायर न कुछ कह पाया है। 

न कुछ कह पाया है



मिलने पर तमाम बन्दिशें हाल-ए-दिल पुछवाया है 
देखे भी जो बयाँ न हो उसको अच्छा कहलाया है।

पीछे छूटा लम्बा रस्ता पाँव चले जो दूर तलक 
आगे की राहें मामूली कह कह खुद बहलाया है। 

गठरी की गाँठें मामूली भूल चुका अब खोले कैसे 
दवा बिना सूजे घावों को बस हाथों से सहलाया है।

न पढ़ना मेरी पाती को ऊपर झूपर लख लेना 
जिस सच को कह न पाया आखर आखर झुठलाया है।

घड़ी घड़ी तारीखें बदलें चार घड़ी की ज़िन्दगी
वक्त बेगैरत कठिन नजूमी कौन सही कह पाया है

 मगरूर मसाइल तमाम ज़िन्दगी छ्न्द पड़ गये छोटे हैं
चीख भरी खामोशी पर शायर न कुछ कह पाया है। 

आओ लक्ष्मी!

harsingar

आओ लक्ष्मी!
अमावस काली बहुत
नभ स्याह, नखत भर रहे आह
धरा फूले शुभ्र हरसिंगार,रह रह कराह
आओ लक्ष्मी!

फैली सुगन्ध, झूले केसर कदम्ब
भर किलकारी,
आओ लक्ष्मी!

कैसी समृद्धि?
रोग भरे अस्पताल
जन जन अपराध,
गले हार अजन्मे मुंडमाल
कुक्षि परीक्षण, गर्भपात,
कैसी ममता, कहाँ गर्भनाल?
सृष्टि शृंगार? उत्स संहार,
पूजन दीप जले चौबार
कृष्ण पथ बिछी आँख आँख,
रची रंगोली द्वार द्वार
भेद अन्धकार,
जगा कुंडलिनी सहस्रसार
खिलखिलाती
आओ लक्ष्मी!

जग जायँ, बन जायँ,
सँवर जायँ सबके भाग
आओ लक्ष्मी!

भूले माया, पुरुष बिना माय धाय?
कलुष विपदा हृदय हार,
लज्जा कहते अर्धनार
बुद्धि भोथरी, छल बल पाश,
असफल हाथ गहे काँप
पौरुष हीन शान,
लिखने अपने हाथ भाग्य
निकलो लक्ष्मी!

खंड खंड अंत पाखंड,
बुझें छलिये मोहन दीप
मुक्त करो मन मुक्ता आब,
सजें स्वाती साहस सीप।
आओ लक्ष्मी!

फूले धरा शुभ हरसिंगार,
फैली सुगन्ध, केसर कदम्ब
भर किलकारी,
आओ लक्ष्मी!

kadamb

आओ लक्ष्मी!

harsingar

आओ लक्ष्मी!
अमावस काली बहुत
नभ स्याह, नखत भर रहे आह
धरा फूले शुभ्र हरसिंगार,रह रह कराह
आओ लक्ष्मी!

फैली सुगन्ध, झूले केसर कदम्ब
भर किलकारी,
आओ लक्ष्मी!

कैसी समृद्धि?
रोग भरे अस्पताल
जन जन अपराध,
गले हार अजन्मे मुंडमाल
कुक्षि परीक्षण, गर्भपात,
कैसी ममता, कहाँ गर्भनाल?
सृष्टि शृंगार? उत्स संहार,
पूजन दीप जले चौबार
कृष्ण पथ बिछी आँख आँख,
रची रंगोली द्वार द्वार
भेद अन्धकार,
जगा कुंडलिनी सहस्रसार
खिलखिलाती
आओ लक्ष्मी!

जग जायँ, बन जायँ,
सँवर जायँ सबके भाग
आओ लक्ष्मी!

भूले माया, पुरुष बिना माय धाय?
कलुष विपदा हृदय हार,
लज्जा कहते अर्धनार
बुद्धि भोथरी, छल बल पाश,
असफल हाथ गहे काँप
पौरुष हीन शान,
लिखने अपने हाथ भाग्य
निकलो लक्ष्मी!

खंड खंड अंत पाखंड,
बुझें छलिये मोहन दीप
मुक्त करो मन मुक्ता आब,
सजें स्वाती साहस सीप।
आओ लक्ष्मी!

फूले धरा शुभ हरसिंगार,
फैली सुगन्ध, केसर कदम्ब
भर किलकारी,
आओ लक्ष्मी!

kadamb

मुझे नहीं पता…

आयेगा वह दिन।
एक दिन आयेगा॥
पेट पालने को, मुँह में दाने को
देहों के गुह्यद्वार नहीं बिकेंगे
माँ के स्तन से चिपट चूसते शिशु को
दूध की जगह रक्त के क्षार नहीं डसेंगे।
निकले पेट लकड़ी से हाथ पाँव
पुतलों जैसे मिलेंगे खेतों में खड़े
पेट के तुष्टीकरण को आते
मूर्ख खगसमूह को भगाने को।
वे गलियों में नंगे नहीं घूमेंगे।
हवाओं में वह अम्ल नहीं होगा
जो बाहों की मछलियों को गला देता है।
नासा की राह फेफड़ों से होते पैरों में पहुँच
हड्डियों को यक्ष्माग्रस्त बना देता है।
धरती पानी से कभी नहीं लजायेगी
आदमी के पानी के दम हरदम लहलहायेगी।
बंजरता बस रह जायेगी एक शब्द सी
अकाल के साथ सिमटी शब्दकोष में
सपनों की दुनिया में जीते जवानों के भाष्य को।
उस दिन के बाद कोई आत्महत्या नहीं करेगा 
और इन्द्रों के हो जायेंगे आत्मापरिवर्तन 
(हृदय तो उनके पास होते ही नहीं
देह में रक्तप्रवाह के अभाव की पूर्ति 
वे रक्त चूस कर करते हैं)। 
धीमे, सुनियोजित नरमेध यज्ञ 
अवैध घोषित कर दिये जायेंगे
उनके लिये होगा मृत्युदंड – बस। 
मनुष्यों के भाग्य बन्द नहीं होंगे 
वृक्षों के परिसंस्कृत सफेद शवसमूहों में। 
मेज पर फाइलें चलेंगी 
उनके पैरों में लाल फीता बन्धन नहीं होंगे। 
प्रार्थनापत्रों पर टिप्पण हस्ताक्षरों में 
विनम्रता होगी, उनसे स्याही ग़ायब होगी 
वे रोशनाई में लिखे जायेंगे।  
त्याग, शील, लज्जा, ममता, सहनशीलता 
बर्बरता की कसौटी नहीं कसे जायेंगे। 
घर एक मन्दिरमें नहीं गढ़ी जायेंगी
नित नवीन अश्रुऋचायें, जीवन के क्षण
नहीं होंगे सुलगते धुँआ भरे अनेक हविकुंड। 
घर में शांति से रह पानादुराशा नहीं होगी 
और न उसके लिये नपुंसकता अनिवार्य होगी।
रोटी, कपड़ा और मकान के साथ उत्कोच 
जीने की मूलभूत आवश्यकता नहीं होगा। 
रचनाशीलता नहीं भटकेगी – 
सीवर, पानी और बिजली के ग़लियारों में। 
सूरज को उगने के लिये नहीं रहेगी 
रोज जरूरत नये घोटालों की। 
वह दिन कवि की मृत्यु का होगा 
पन्नों पर न दुख होगा और न क्रांति की हुँकारें 
न ललकार होगी, न सिसकार होगी 
और न दुत्कार होगी। 
जीवन सुन्दर होगा, प्रेमिल होगा। 
कृतियाँ तब भी रची जायेंगी 
आनन्द के वाक्य तब भी रचे जायेंगे। 
मुझे नहीं पता कि उस युग में वासी उन्हें
कविता कह पायेंगे॥

मुझे नहीं पता…

आयेगा वह दिन।
एक दिन आयेगा॥
पेट पालने को, मुँह में दाने को
देहों के गुह्यद्वार नहीं बिकेंगे
माँ के स्तन से चिपट चूसते शिशु को
दूध की जगह रक्त के क्षार नहीं डसेंगे।
निकले पेट लकड़ी से हाथ पाँव
पुतलों जैसे मिलेंगे खेतों में खड़े
पेट के तुष्टीकरण को आते
मूर्ख खगसमूह को भगाने को।
वे गलियों में नंगे नहीं घूमेंगे।
हवाओं में वह अम्ल नहीं होगा
जो बाहों की मछलियों को गला देता है।
नासा की राह फेफड़ों से होते पैरों में पहुँच
हड्डियों को यक्ष्माग्रस्त बना देता है।
धरती पानी से कभी नहीं लजायेगी
आदमी के पानी के दम हरदम लहलहायेगी।
बंजरता बस रह जायेगी एक शब्द सी
अकाल के साथ सिमटी शब्दकोष में
सपनों की दुनिया में जीते जवानों के भाष्य को।
उस दिन के बाद कोई आत्महत्या नहीं करेगा 
और इन्द्रों के हो जायेंगे आत्मापरिवर्तन 
(हृदय तो उनके पास होते ही नहीं
देह में रक्तप्रवाह के अभाव की पूर्ति 
वे रक्त चूस कर करते हैं)। 
धीमे, सुनियोजित नरमेध यज्ञ 
अवैध घोषित कर दिये जायेंगे
उनके लिये होगा मृत्युदंड – बस। 
मनुष्यों के भाग्य बन्द नहीं होंगे 
वृक्षों के परिसंस्कृत सफेद शवसमूहों में। 
मेज पर फाइलें चलेंगी 
उनके पैरों में लाल फीता बन्धन नहीं होंगे। 
प्रार्थनापत्रों पर टिप्पण हस्ताक्षरों में 
विनम्रता होगी, उनसे स्याही ग़ायब होगी 
वे रोशनाई में लिखे जायेंगे।  
त्याग, शील, लज्जा, ममता, सहनशीलता 
बर्बरता की कसौटी नहीं कसे जायेंगे। 
घर एक मन्दिरमें नहीं गढ़ी जायेंगी
नित नवीन अश्रुऋचायें, जीवन के क्षण
नहीं होंगे सुलगते धुँआ भरे अनेक हविकुंड। 
घर में शांति से रह पानादुराशा नहीं होगी 
और न उसके लिये नपुंसकता अनिवार्य होगी।
रोटी, कपड़ा और मकान के साथ उत्कोच 
जीने की मूलभूत आवश्यकता नहीं होगा। 
रचनाशीलता नहीं भटकेगी – 
सीवर, पानी और बिजली के ग़लियारों में। 
सूरज को उगने के लिये नहीं रहेगी 
रोज जरूरत नये घोटालों की। 
वह दिन कवि की मृत्यु का होगा 
पन्नों पर न दुख होगा और न क्रांति की हुँकारें 
न ललकार होगी, न सिसकार होगी 
और न दुत्कार होगी। 
जीवन सुन्दर होगा, प्रेमिल होगा। 
कृतियाँ तब भी रची जायेंगी 
आनन्द के वाक्य तब भी रचे जायेंगे। 
मुझे नहीं पता कि उस युग में वासी उन्हें
कविता कह पायेंगे॥

आज की रात तुम्हें फिर पाना चाहता हूँ।

होठों की नमी के पीछे
दहकती पास प्यास
रेख रेख देख सकता हूँ
छू नहीं सकता – होठ सूखते हैं।

इतने निकट होना कि
साँसें दूर धकेलने लगें
और आँखें जीभ को सोख लें
कह नहीं सकता – होठ फटते हैं।

हवाओं को सहलाता हूँ
अंगुलियों से सुलझाता हूँ
चमकते चन्द रजत गुच्छे
बह नहीं सकता – आँसू रुकते हैं।

बुनता हूँ धागे जो अदृश्य हैं
कि पहना दूँ दिगम्बर तन को
जलती चाँदनी जलन से रूप पर
सह नहीं सकता – भाव बिंधते हैं।

न, वहीं रहो, दूरियाँ सुन्दर हैं
आज की रात बस सुन्दर है
निशा सहमेगी, भटकेगी यामिनी,
पर्याय हो रजनी करेगी राहजनी
कोई चिंता नहीं, दुख नहीं, सुख नहीं
लुटने लुटाने का भय नहीं
इतनी उठान कि उड़ना चाहता हूँ
इतनी थकान कि मरना चाहता हूँ।
आज की रात मैं बच्चे सा सोना चाहता हूँ

कुछ नहीं, खोया कभी नहीं
आज की रात तुम्हें फिर पाना चाहता हूँ। 

आज की रात तुम्हें फिर पाना चाहता हूँ।

होठों की नमी के पीछे
दहकती पास प्यास
रेख रेख देख सकता हूँ
छू नहीं सकता – होठ सूखते हैं।

इतने निकट होना कि
साँसें दूर धकेलने लगें
और आँखें जीभ को सोख लें
कह नहीं सकता – होठ फटते हैं।

हवाओं को सहलाता हूँ
अंगुलियों से सुलझाता हूँ
चमकते चन्द रजत गुच्छे
बह नहीं सकता – आँसू रुकते हैं।

बुनता हूँ धागे जो अदृश्य हैं
कि पहना दूँ दिगम्बर तन को
जलती चाँदनी जलन से रूप पर
सह नहीं सकता – भाव बिंधते हैं।

न, वहीं रहो, दूरियाँ सुन्दर हैं
आज की रात बस सुन्दर है
निशा सहमेगी, भटकेगी यामिनी,
पर्याय हो रजनी करेगी राहजनी
कोई चिंता नहीं, दुख नहीं, सुख नहीं
लुटने लुटाने का भय नहीं
इतनी उठान कि उड़ना चाहता हूँ
इतनी थकान कि मरना चाहता हूँ।
आज की रात मैं बच्चे सा सोना चाहता हूँ

कुछ नहीं, खोया कभी नहीं
आज की रात तुम्हें फिर पाना चाहता हूँ। 

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे – बुद्धिनाथ मिश्र

गीत 

आभार :
http://tearswineandasuit.blogspot.com

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

जाने किस मछली में बंधन की चाह हो। 

सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है,

हर दर्पण में उभरा एक दिवा लोक है,

रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे,

इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो?

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

उनका मन आज हो गया पुरइन पात है,

भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है, 

चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे, 
ऐसे में क्यूँ न कोई मौसमी गुनाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

गूँजती गुफाओं में पिछली सौगंध है,

हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है,

कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे? 
पग-पग पर लहरें जब माँग रहीं छाँह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

कुमकुम सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है,

बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है,

यूँ ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे,
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

___________________________________


यह गीत किशोर वय की मेरी रागमयी स्मृतियों में से एक है। राजकीय इंटर कॉलेज के वार्षिक क्रीड़ा महोत्सव के साथ होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरान इसे पहली बार सुना था। अंत्याक्षरी प्रतियोगिता हुई थी जिसमें फिल्मी गीतों का निषेध था । प्रतियोगियों को कविता, साहित्यिक गीत आदि सुनाने थे – मुखड़ा और एक अंतरा। जब इस गीत को एक छात्र ने स्वर दिया तो हाल में सन्नाटा छा गया और उसे गीत पूरा करने से किसी ने नहीं रोका। सच कहूँ तो जैसा कौशल और स्वरमाधुर्य उस बालक में था वैसा स्वयं कवि के स्वर में नहीं है। 
ओस मेरा एक प्रिय बिम्ब है। ओस सरीखे सपनों को जो कि जागरण के चन्द क्षणों के पश्चात ही उड़ जाते हैं, कुश में गूँथना एक बहुअर्थी बिम्ब है। कुश को पवित्र माना जाता है और ओस तो विशुद्ध शुद्ध होती ही है। कवि सपनों को प्रात के क्षणों की उस दिव्यता से जोड़ता है जो अत्यल्प काल में ही मन मस्तिष्क से तिरोहित हो जाती है लेकिन जिसकी स्मृति मन में रच बस जाती है – फिर फिर उभरने के लिये।

रेत के घरौंदे, सीप, अन्धेरा और नेह एक अनुभूतिमय बिंब है। कवि को नेह निबाह में अन्धेरा स्वीकार नहीं। जाने क्यों किसी के रूप की आब से रोशन अन्धेरा मन में आता है और पुन: ओस की बूँद (स्वाती जलद वारि नहीं) का सीप में मोती बन जाना  – लगता है जैसे कवि बहुत कुछ कहना चाह रहा था लेकिन छ्न्द बन्ध और टेक की सीमा ने रोक दिया! 

चन्द्र को घेरे मेघ और मौसमी गुनाह! कमजोर क्षणों में निषिद्ध आदिम सम्बन्धों के घटित हो जाने की ओर ऐसा मासूम और अर्थगुरु संकेत कम ही दिखता है। ज़रा सोचिये, बरसात हो गई लेकिन मन कमल के पत्ते सा अनभीगा रहा। पर आसमान अभी निरभ्र नहीं हुआ, उग आया चाँद अब उस ओर संकेत कर रहा है। आज क्या हो गया प्रिय तुम्हें? जो होता है, हो जाने दो!

हंस, झील, फेरे, लहरें और छाँह। आप ने ऐसा बिम्ब कहीं और देखा है?  फेरों में गति है, लहरों में गति है, पग में गति है लेकिन हर बाढ़ पर छाँह की चाह तो स्थिरता माँगती है! झील तो वहीं की वहीं है, लेकिन बेचारा उड़ता हंस! प्रेम क्या गति और स्थिति की घूर्णन सममिति को साधना नहीं होता? झील की लहरें अनंत हैं लेकिन हंस के फेरे तो अनंत नहीं हो सकते। हंस की सीमा है और प्रेम की त्रासदी भी यही है।

जिन लोगों ने पूरी रात को मधु यामिनी सा जिया हो, वे कुमकुम लाल सी निखरी भोरहरी लाज और तन मन की काँप को समझ सकते हैं। प्रेम का दंश – नागिन का मन अभी लुभने से नहीं भरा। सँपेरे! बीन की धुन न तोड़। प्रार्थना पराती नहीं कोई मादक पराती बजाओ। 
 एक भोजपुरी गीत ‘छोड़ छोड़ कलइया सैंया भोर हो गईल, तनि ताक न अँगनवा अँजोर हो गइल’ की स्मृति हो आई है और निराला के ‘नैनों के डोरे लाल गुलाल’ की भी। इन पर फिर कभी। 

और अंत में … 
जाल, मछली और मछेरा। कवि ने इसे आशावादी गीत कहा है लेकिन यह तो पूरी तरह से रागवादी गीत है।
क्या हुआ जो असफल हुये? फिर से लहरों में जाल फेंको न! देह स्वयं नहीं बँधती, उसे बन्धन की चाह बाँधती है। 
_______________________________         
अब कवि के स्वर में गीत 

http://static.boomp3.com/player2.swf?id=51vg8m885oc&title=Buddhinath+ek+bar+aur+jalBuddhinath ek bar aur jal

यहाँ बुद्धिनाथ मिश्र का एक और गीत : धान जब भी फूटता है …

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे – बुद्धिनाथ मिश्र

गीत 

आभार :
http://tearswineandasuit.blogspot.com

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

जाने किस मछली में बंधन की चाह हो। 


सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है,

हर दर्पण में उभरा एक दिवा लोक है,
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे,
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो?

एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!

उनका मन आज हो गया पुरइन पात है,

भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है, 
चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे, 
ऐसे में क्यूँ न कोई मौसमी गुनाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!


गूँजती गुफाओं में पिछली सौगंध है,

हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है,
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे? 
पग-पग पर लहरें जब माँग रहीं छाँह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!


कुमकुम सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है,

बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है,
यूँ ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे,
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
___________________________________ 


यह गीत किशोर वय की मेरी रागमयी स्मृतियों में से एक है। राजकीय इंटर कॉलेज के वार्षिक क्रीड़ा महोत्सव के साथ होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरान इसे पहली बार सुना था। अंत्याक्षरी प्रतियोगिता हुई थी जिसमें फिल्मी गीतों का निषेध था । प्रतियोगियों को कविता, साहित्यिक गीत आदि सुनाने थे – मुखड़ा और एक अंतरा। जब इस गीत को एक छात्र ने स्वर दिया तो हाल में सन्नाटा छा गया और उसे गीत पूरा करने से किसी ने नहीं रोका। सच कहूँ तो जैसा कौशल और स्वरमाधुर्य उस बालक में था वैसा स्वयं कवि के स्वर में नहीं है। 
ओस मेरा एक प्रिय बिम्ब है। ओस सरीखे सपनों को जो कि जागरण के चन्द क्षणों के पश्चात ही उड़ जाते हैं, कुश में गूँथना एक बहुअर्थी बिम्ब है। कुश को पवित्र माना जाता है और ओस तो विशुद्ध शुद्ध होती ही है। कवि सपनों को प्रात के क्षणों की उस दिव्यता से जोड़ता है जो अत्यल्प काल में ही मन मस्तिष्क से तिरोहित हो जाती है लेकिन जिसकी स्मृति मन में रच बस जाती है – फिर फिर उभरने के लिये।

रेत के घरौंदे, सीप, अन्धेरा और नेह एक अनुभूतिमय बिंब है। कवि को नेह निबाह में अन्धेरा स्वीकार नहीं। जाने क्यों किसी के रूप की आब से रोशन अन्धेरा मन में आता है और पुन: ओस की बूँद (स्वाती जलद वारि नहीं) का सीप में मोती बन जाना  – लगता है जैसे कवि बहुत कुछ कहना चाह रहा था लेकिन छ्न्द बन्ध और टेक की सीमा ने रोक दिया! 

चन्द्र को घेरे मेघ और मौसमी गुनाह! कमजोर क्षणों में निषिद्ध आदिम सम्बन्धों के घटित हो जाने की ओर ऐसा मासूम और अर्थगुरु संकेत कम ही दिखता है। ज़रा सोचिये, बरसात हो गई लेकिन मन कमल के पत्ते सा अनभीगा रहा। पर आसमान अभी निरभ्र नहीं हुआ, उग आया चाँद अब उस ओर संकेत कर रहा है। आज क्या हो गया प्रिय तुम्हें? जो होता है, हो जाने दो!

हंस, झील, फेरे, लहरें और छाँह। आप ने ऐसा बिम्ब कहीं और देखा है?  फेरों में गति है, लहरों में गति है, पग में गति है लेकिन हर बाढ़ पर छाँह की चाह तो स्थिरता माँगती है! झील तो वहीं की वहीं है, लेकिन बेचारा उड़ता हंस! प्रेम क्या गति और स्थिति की घूर्णन सममिति को साधना नहीं होता? झील की लहरें अनंत हैं लेकिन हंस के फेरे तो अनंत नहीं हो सकते। हंस की सीमा है और प्रेम की त्रासदी भी यही है।

जिन लोगों ने पूरी रात को मधु यामिनी सा जिया हो, वे कुमकुम लाल सी निखरी भोरहरी लाज और तन मन की काँप को समझ सकते हैं। प्रेम का दंश – नागिन का मन अभी लुभने से नहीं भरा। सँपेरे! बीन की धुन न तोड़। प्रार्थना पराती नहीं कोई मादक पराती बजाओ। 
 एक भोजपुरी गीत ‘छोड़ छोड़ कलइया सैंया भोर हो गईल, तनि ताक न अँगनवा अँजोर हो गइल’ की स्मृति हो आई है और निराला के ‘नैनों के डोरे लाल गुलाल’ की भी। इन पर फिर कभी। 

और अंत में … 
जाल, मछली और मछेरा। कवि ने इसे आशावादी गीत कहा है लेकिन यह तो पूरी तरह से रागवादी गीत है।
क्या हुआ जो असफल हुये? फिर से लहरों में जाल फेंको न! देह स्वयं नहीं बँधती, उसे बन्धन की चाह बाँधती है। 
_______________________________         

यहाँ बुद्धिनाथ मिश्र का एक और गीत : धान जब भी फूटता है …