Monthly Archives: अक्टूबर 2011
न कुछ कह पाया है
आओ लक्ष्मी!
आओ लक्ष्मी!
मुझे नहीं पता…
मुझे नहीं पता…
आज की रात तुम्हें फिर पाना चाहता हूँ।
दहकती पास प्यास
रेख रेख देख सकता हूँ
छू नहीं सकता – होठ सूखते हैं।
इतने निकट होना कि
साँसें दूर धकेलने लगें
और आँखें जीभ को सोख लें
कह नहीं सकता – होठ फटते हैं।
हवाओं को सहलाता हूँ
अंगुलियों से सुलझाता हूँ
चमकते चन्द रजत गुच्छे
बह नहीं सकता – आँसू रुकते हैं।
बुनता हूँ धागे जो अदृश्य हैं
कि पहना दूँ दिगम्बर तन को
जलती चाँदनी जलन से रूप पर
सह नहीं सकता – भाव बिंधते हैं।
न, वहीं रहो, दूरियाँ सुन्दर हैं
आज की रात बस सुन्दर है
निशा सहमेगी, भटकेगी यामिनी,
पर्याय हो रजनी करेगी राहजनी
कोई चिंता नहीं, दुख नहीं, सुख नहीं
लुटने लुटाने का भय नहीं
इतनी उठान कि उड़ना चाहता हूँ
इतनी थकान कि मरना चाहता हूँ।
आज की रात मैं बच्चे सा सोना चाहता हूँ
कुछ नहीं, खोया कभी नहीं
आज की रात तुम्हें फिर पाना चाहता हूँ।
आज की रात तुम्हें फिर पाना चाहता हूँ।
दहकती पास प्यास
रेख रेख देख सकता हूँ
छू नहीं सकता – होठ सूखते हैं।
इतने निकट होना कि
साँसें दूर धकेलने लगें
और आँखें जीभ को सोख लें
कह नहीं सकता – होठ फटते हैं।
हवाओं को सहलाता हूँ
अंगुलियों से सुलझाता हूँ
चमकते चन्द रजत गुच्छे
बह नहीं सकता – आँसू रुकते हैं।
बुनता हूँ धागे जो अदृश्य हैं
कि पहना दूँ दिगम्बर तन को
जलती चाँदनी जलन से रूप पर
सह नहीं सकता – भाव बिंधते हैं।
न, वहीं रहो, दूरियाँ सुन्दर हैं
आज की रात बस सुन्दर है
निशा सहमेगी, भटकेगी यामिनी,
पर्याय हो रजनी करेगी राहजनी
कोई चिंता नहीं, दुख नहीं, सुख नहीं
लुटने लुटाने का भय नहीं
इतनी उठान कि उड़ना चाहता हूँ
इतनी थकान कि मरना चाहता हूँ।
आज की रात मैं बच्चे सा सोना चाहता हूँ
कुछ नहीं, खोया कभी नहीं
आज की रात तुम्हें फिर पाना चाहता हूँ।
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे – बुद्धिनाथ मिश्र
आभार : http://tearswineandasuit.blogspot.com |
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है,
हर दर्पण में उभरा एक दिवा लोक है,
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे,
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
उनका मन आज हो गया पुरइन पात है,
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है,
चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे,
ऐसे में क्यूँ न कोई मौसमी गुनाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
गूँजती गुफाओं में पिछली सौगंध है,
हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है,
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे?
पग-पग पर लहरें जब माँग रहीं छाँह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
कुमकुम सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है,
बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है,
यूँ ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे,
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
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http://static.boomp3.com/player2.swf?id=51vg8m885oc&title=Buddhinath+ek+bar+aur+jalBuddhinath ek bar aur jal
यहाँ बुद्धिनाथ मिश्र का एक और गीत : धान जब भी फूटता है …
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे – बुद्धिनाथ मिश्र
आभार : http://tearswineandasuit.blogspot.com |
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो।
हर दर्पण में उभरा एक दिवा लोक है,
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे,
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो?
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है,
चंदा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे,
ऐसे में क्यूँ न कोई मौसमी गुनाह हो?
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
हर चारे में कोई चुंबकीय गंध है,
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे?
पग-पग पर लहरें जब माँग रहीं छाँह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
बंसी की डोर बहुत काँप रही आज है,
यूँ ही ना तोड़ अभी बीन रे सँपेरे,
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
एक बार और जाल फेंक रे मछेरे!
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यहाँ बुद्धिनाथ मिश्र का एक और गीत : धान जब भी फूटता है …