लवलीन प्राण की दीपशिखा, निकली जिससे संघर्ष ज्योति
जिस पर आधारित टिकी टिकी, सुख दुख की उत्कर्ष ज्योति।
है जीवन की झंकार यही
है जीवन की टंकार यही
Category Archives: डायरी
पुरानी डायरी से – 5 : धूप बहुत तेज है।
‘धूप बहुत तेज है’
इस लाल लपलपाती दुपहरी में
काले करियाए तारकोल की नुकीली
धाँय धाँय करती सड़कों पर
नंगे पाँव मत निकला करो
क्यों कि
धूप बहुत तेज है।
लहू के पसीने से नहा कर
तेरी शरीर जल जाएगी इन सड़कों पर ।
लद गए वो दिन
जब इन सड़कों की चिकनाई
देती थी प्यार की गरमाई।
बादलों की छाँव से
सूरज बहुत दूर था।
मस्त पुरवाई के गुदाज हाथ
सहला देते थे तेरे बदन को ।
आज सब कुछ लापता है
क्यों कि
धूप बहुत तेज है।
सुबह के दहकते उजाले में
तीखी तड़तड़ाती आँधी (मुझे याद आ रहा है कि ये पंक्तियाँ किसी दूसरे की कविता से ली गई थीं)
भर देती है आँखों में मिर्च सी जलन।
छटपटाता आदमी जूझता है अपने आप से।
काट खाने को दौड़ता है अपने ही जैसे आदमी को।
नहीं जानता है वह
या जानते हुए झुठलाता है
कि
सारा दोष इस कातिल धूप का है।
निकल पड़ो तुम
इस धूप के घेरे से।
क्यों कि यह धूप !
नादानी है
नासमझी है।
क्यों कि
तेरे मन के उफनते हहरते सागर के लिए
यह धूप बहुत तेज है।
धूप बहुत तेज है।
पुरानी डायरी से – 3 : घिर गई काली उदासी
‘घिर गई काली उदासी’
नींद से स्वप्न तोड़े, घिर गई काली उदासी
ठूँठा वन, सूना मन, बह गई पछुवा हवा सी।
तुम किसी लायक न थी, हाय मेरी चाहना
छोटी छड़ी हाथों लगी, था समुद्र थाहना
चन्द्रिका की वासना, चन्द्र को आँखें पियासी
घिर गई काली उदासी।
रंग रूप रस गन्ध माधुरी, क्यों न भोगे ?
संग अंग छवि बन्ध नागरी, क्यों न भोगे ?
पतझड़ फिरता नहीं, क्यों नहीं समझा विनाशी?
घिर गई काली उदासी।
पुरानी डायरी से -4 : काम कविता
कभी कभी सोचता हूँ
कितना सुन्दर होगा तुम्हारा शरीर !
जिसका प्रगाढ़ आलिंगन करते हैं तुम्हारे वस्त्र
और बातें करते हैं तुम्हारे अंग अंग से
(मुझे ईर्ष्या होती है !)
कैसा होगा वह शरीर !
तुलसी के पत्ते पर
प्रात:काल में चमकती
जुड़वा ओस की बूँदे
धवल पीन युगल वे स्तन
क्या वैसे ही होंगे ?
सुदूर फैला सपाट मैदान
सूना सा शांत सौन्दर्य
क्षितिज पर कहीं पोखरे का आभास।
तुम्हारा नाभिस्थल ऐसा ही होगा।
हिमश्वेत उन्नत श्रृंगों के बीच
बहती विद्रोही पहाड़ी नदी
परिपूर्ण यौवन वेगमय प्रवाह।
हाँ ऐसा ही होगा तुम्हारा जघन स्थल।
….
कभी कभी सोचता हूँ