तुलसीदास को पढ़ने के बाद मुझे यही लगा कि एक निहायत ही पारदर्शी व्यक्तित्त्व के साथ समर्थकों और विरोधियों दोनों ने ही बहुत अन्याय किया है.
समर्थक अन्याय :
(1) तुलसीदास अवतारी पुरुष थे.
(2) उनकी रामचरित मानस विश्व की सर्वश्रेष्ठ “दर्शन कृति” है.
विरोधी अन्याय :
(1) तुलसीदास नारी और शूद्र विरोधी तथा उच्च जातियों की प्रतिष्ठा करने वाले पोंगापंथी ब्राह्मण थे.
(2) वे हिन्दू समाज के पथ भ्रष्टक थे.रामचरित मानस पुराने संस्कृत ग्रंथों के भौंड़े अनुवाद के सिवा कुछ नहीं.
अस्तु ….
या
पहले से ही प्रचलित एक कहावत को नकलची तुलसी ने एक नया संस्कार दिया.
चाहे जो हो कवि तुलसी की संवेदना और जन की आधी आबादी के प्रति करुणा इन दो पँक्तियों में ऐसी छलकती है कि आँखें बरबस ही नम हो जाती हैं:
माता उमा को समझा रही हैं ,’’पता नहीं क्यों विधाता ने नारी को गढ़ा, …पराधीन ही ज़िन्दगी बीत जाती है और सुख सपने में भी नहीं मिलता.”
’कत बिधि स्रजी नारि जग माँही, पराधीन सुख सपनेहु नाहीँ’.
पुरुष वर्चस्व के घनघोर काल में (त्रेता युग हो या हरम संस्कृति वाला कलियुगी मध्यकाल) माँ और बेटी के इस सख्य भाव में न जाने कितने संदेश छिपे हैं. तुलसी की जन चेतना का यह दूसरा पक्ष है.
जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस कहैं एक एकन सों कहॉ जाई का करी।
बेदहूँ पुरान कही लोकहूँ बिलोकिअत साँकरे सबै पै राम रावरे कृपा करी।
दारिद दसानन दबाई दुनी दीनबन्धु दुरित दहन देखि तुलसी हहाकरी।
सीद्यमान संस्कृत शब्द है जिसका देसज रूप “सीझना” है. चावल आँच पर रख कर धीमे धीमे पकाया जाता है, उसका पकना सीझना कहलाता है. ठीक वैसे ही जनता कुशासन के दौर में धीरे धीरे सीझ रही है, सूख रही है. कहीं राह नहीं! जाएँ तो जाएं कहाँ? दरिद्रता इतनी है कि भिखारी को भीख तक नहीं मिलती. रावण कौन है? अरे यह दरिद्रता ही रावण है! तुलसी हाहाकार करता है प्रभु कुछ करो. वेदों पुराणों की क्या कहूं लोक प्रमाण हैं संकट में प्रभु तुमने सब पर कृपा की है. कुछ करो…अपनी एक दूसरी रचना में उन्हों ने भूख से त्रस्त माता पिता द्वारा संतानों को बेंचने का भी चित्रण किया है ‘पेट ही को पचत बेचत बेटा बेटकी‘.
दरबारी चाटुकारों की भीड़ जुटाने के शौकीन अकबर ने जब तुलसी के पास 5000 की मनसब दारी का प्रस्ताव भेजा तो उस राम के ग़ुलाम लोकवादी कवि ने टका सा ज़वाब दे दिया:
तुलसी अब का होइहें नर के मनसबदार’
आखिर ‘राम ते अधिक राम कर दासा’ . दास जन है. जन का यह रूप तो राम से भी महान है.
आज के कितने काव्य मठाधीश ऐसे प्रलोभनों को ठुकरा पाते हैं?
उनके समय में जब काशी में प्लेग़ (तत्कालीन संदर्भ – रुद्र की बीसी) की महामारी फैली तो राजसता ने क्या किया यह तो अज्ञात है लेकिन काशी आज भी इस गोसाईं के आखाड़ा आयोजन को याद करती है. युवकों द्वारा रोगियों के उपचार और सफाई एवँ मृतकों के दाह संस्कार की व्यवस्था तुलसी ने की. जन सेवा का कैसा उन्माद था! इसे आप तब समझेंगें जब यह जानेंगें ब्रिटिश काल तक प्लेग के समय परिवारों द्वारा रोगी को घर में अकेले छोड़ कर पलायन कर जाने के रिकॉर्ड मिलते हैं. इतने महान अभियान के प्रेरणा पुरुष का व्यक्तित्त्व कैसा रहा होगा !
तुलसी कुछ समय तक किसी मठ के मुखिया गोस्वामी भी रहे लेकिन बहुत शीघ्र सब छोड़ दिए वापस ‘तीन गाँठ कौपीन‘ की संपदा में जीवन बिताने के लिए. गोंसाइपने का पछतावा इतना सताता रहा कि किसी और बहाने से रामचरित मानस तक में लिख बैठे ‘सो मायाबस भयउ गोसाईं। बँध्यो कीर मरकट की नाईँ॥‘
अगली बार जब आप अखण्ड रामायण पारायण का आयोजन लाउड स्पीकरों द्वारा पड़ोसियों की नींद हराम करने और उन्हें भक्ति के आडम्बर हेतु मज़बूर करने के लिए करें तो करने के पहले जरा सोचें … इस संत कवि की रचनाओं को विशुद्ध लोकोन्मुख नज़रिए से क्यों नहीं पढ़ा और गुना जा सकता. आप को आनन्द भी मिलेगा और इस पृथ्वी को पर्यावरण प्रदूषण से थोड़ी राहत भी..