आत्मनिवेदन

हेतु सिरजन नत मन
दया करो जीवन धन।

टूट गये वीणा के तार
खर गईं लिपियाँ पार
हार हृदय सकल भार
अब सँभार जीवन धन।

छ्न्द निबन्ध हीन प्राण
दिवा रात भर सकल तान
मौन भरमे नमन गान
असुर तान जीवन धन।

छोड़ गये सब राह मीत
पाथ साध भर भाव गीत
बची रहेगी सदा प्रीत
जाग रीत जीवन धन।

न हार रे मन!

रे मन!
अलग न हो, स्वीकार स्व जो जीवन धन
बिलग न हो मन! स्वीकार, न हार रे मन!
सुलग सुलग धधकी धरा जब ताप इक दिन
उमगी सरिता नयनों से निकल, सिहरा तन
भभका भाप उच्छवास, प्रलय प्रतीति जन
कर उठे हाहाकार, कैसी यह रीति प्रीति मन!
बढ़ चले प्राण नि:शंक साँस झरते आनन्द कण
समय नहीं उपयुक्त, सदियों की रीत प्रीत मन!
वृथा सब, आखिर हारे मन!
शीतल विराग, राग तवा ताप, बूँदें छ्न छ्न
उड़ गईं छोड़ चिह्न हर ठाँव टप सन टप सन
निश्चिंत सुहृद – होगा अब समाज हित स्व हित।
न समझे ताप सिकुड़ा कोर, ज्यों भू ज्वालामुख
फूटे, आघातों के विवर रेख लावा लह दह नर्तन।
शीतल अब, उर्वर अब, भू पर लिख छ्न्द गहन    
स्वीकार, न हार रे मन!
मान, न कर मान, चलने दे सहज जीवन
सहज सहेज रचते रहे  विस्तार हर पल
सहम न देख निज आचार अब हर क्षण।
यह है जीवन धार, जो भीगे न, सूखे न,
न,न करते ठाढ़ छाँव, कैसा आभार घन?  
दुन्दुभि ध्वनि लीन अब क्यों मन्द स्वर?
स्वीकार, न हार रे मन

आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर


ढूढ़ा किए दौरे जहाँ कि तिलस्म का राज खुले
देख लेते तुम्हारे अक्षर तो यूँ क्यूँ भटकते?
न भटकते तो कैसे होती हासिल ये शोख नजर
देखा तो पाया, आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर।

चुप हैं खामोशी से भी नीचे तक
कैसा खामोश मंजर कि सब कहने लगे हैं
थके पाँवों के नीचे सरकते ग़लीचे
थमने की बातें करने लगे हैं।

तुम न कहते तो जाने क्या बात होती
जो कह गए हो तो जाने क्या बात होगी
जो कहना था न तुम कह पाए न हम कह पाए
अब इशारों इशारों में क्या बात होगी ।
चलो आज छोड़ें इशारे
कह दें जो कहनी थी पर कह न पाए –
देखो सड़क किनारे वो बूढ़ा सा पीपल
उसके पत्ते हवा में खड़कने लगे हैं
 बैठें कुछ देर छाए में किनारे
न कहना कि ऐसे में क्या बात होगी।

समझो न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर
बैठें पीपल तले, शफेखाने, मयखाने या मन्दर
कोई सूरमा ऋषि हो या अजनबी सिकन्दर
 हो जाती है बात जो होनी है होती
ग़र दिल के कोने कहीं लगावट है होती।

माना कि तुम हो परेशाँ और मैं भी हैराँ
जिनके जिन्दा निशाँ हैं जुबाँ पर हमारे
दिल ताने हुए है सख्त सी धड़कन
फिर कैसी ये तड़पन जो न तुम भूल पाते
न हम भूल पाते !
एक बात जो है तुमको बतानी
एक उलझी जुबानी
कि थी ही नहीं इतनी काबिल परेशानी
जो न हम मोल पाते न तुम तोल पाते
जो न हम तोल पाते न तुम मोल पाते।

चलो छोड़ो ये मोल तोल की बातें
देखो पीपल तले वो भुट्टे की भुनाई
खाएँगे भुट्टे और पिएँगे एक लोटे पानी
एक गमछे से पोंछेंगे हाथ और आँखें
चल देंगे धीमे से हँसते ।
मानो कि वो बहुत बात होगी
न होंगे गलीचे न होंगे वो मंजर –
मैंने कहा था कि नहीं ?
न होता आखराँ कोई आखिरी मंजर।