आज इन आँकड़ों पर दृष्टि पड़ी । जन्म के समय, दुहरा रहा हूँ जन्म के समय प्रति हजार बालकों पर बालिकाओं की राज्यवार संख्या इस प्रकार है। इसमें सारे राज्य नहीं दिखाए गए हैं। महाराष्ट्र , आन्ध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु को छोड़ दें तो लैंगिक अनुपात में सुधार दिख रहा है लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत आदर्श अनुपात 950 या उससे अधिक से भारत का वर्तमान लैंगिक अनुपात 904 अभी बहुत पीछे है।
राज्य | सन् 2006-08 | सन् 2001-03 |
पंजाब | 836 | 776 |
हरयाणा | 847 | 807 |
जम्मू कश्मीर | 862 | 816 |
राजस्थान | 870 | 855 |
दिल्ली | 877 | 835 |
उत्तर प्रदेश | 877 | 853 |
महाराष्ट्र | 884 | 887 |
गुजरात | 898 | 862 |
बिहार | 914 | 861 |
आन्ध्र प्रदेश | 917 | 932 |
मध्य प्रदेश | 919 | 922 |
झारखण्ड | 922 | 865 |
असम | 933 | 904 |
तमिलनाडु | 936 | 953 |
हिमाचल प्रदेश | 938 | 803 |
पश्चिम बंगाल | 941 | 937 |
केरल | 964 | 892 |
छत्तीसगढ़ | 975 | 964 |
स्थिति की जटिलता को और जटिल दर्शाता हुआ एक और आँकड़ा है जिसके अनुसार जन्म पूर्व गर्भ परीक्षण और उसके बाद गर्भसमापन की प्रक्रिया प्रति दिन 1600 बालिकाओं की जन्म पूर्व बलि ले रही है।
मन में कुछ प्रश्न उठ रहे हैं:
(1) कहीं ऐसा तो नहीं कि प्रकृति लैंगिक अनुपात को बालकों के पक्ष में रखना चाहती है? नवजात बालिकाओं में बालकों की तुलना में प्रतिरोध क्षमता अधिक होती है इसलिए उनके जीवित बचने की सम्भावना भी अधिक होती है।
(2) भारत की कुल जनसंख्या के कितने भाग की जन्म पूर्व गर्भ परीक्षण की तकनीक तक पहुँच है? उसमें से कितने इसके प्रयोग को सही मानते हैं या इसका वास्तव में प्रयोग करते हैं?
(3) भारत की कितनी जनसंख्या आर्थिक रूप से इतनी सक्षम है कि इन महँगे परीक्षणों का व्यय उठा सके? कहना न होगा कि ग़ैर क़ानूनी होने के कारण ये परीक्षण महँगे हैं।
(4) मनुष्य की सोच और अवचेतन का सामूहिक प्रभाव बहुत व्यापक होता है। मैं यह कहना चाह रहा हूँ कि लोग नर संतान चाहते हैं , उसके प्रति पक्षपाती हैं । इस प्रबल सामूहिक विचार की नकारात्मकता का ही तो प्रभाव नहीं है कि बालिकाओं की संख्या अपेक्षतया कम है? इस नकारात्मक सोच का प्रभाव निषेचन और गर्भ में लिंग निर्धारण की प्रक्रिया पर भी तो नहीं पड़ता ?
(5) सांस्कृतिक और पारम्परिक रूप से कुछ राज्यों में बालिकाओं के प्रति द्वेष कमतर रहा है, जैसे – पश्चिम बंगाल, केरल, छतीसगढ़, झारखण्ड आदि। इन राज्यों की सामाजिक गढ़न नारी के लिए बेहतर रही है। इनमें से केरल और छत्तीसगढ़ दो राज्य ऐसे हैं जहाँ अनुपात 950 से भी अधिक है।
वनवासी या ग्रामीण, जिन अर्थव्यवस्थाओं में नारी की सक्रिय और बराबरी की भागीदारी रही है, वहाँ अनुपात बालिकाओं के पक्ष में रहा है। स्वतंत्रता के बाद हुए तेजी से हुई अनियोजित प्रगति का बुरा प्रभाव भी लैंगिक अनुपात में परिलक्षित होता है। पुत्र की सनातन कामना पिछड़ी कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में थी तो लेकिन कृषि कार्य में नारी की सक्रिय भागीदारी ने उसकी स्थिति को ‘स्वीकार्य’ रखा। मशीनों के अभाव में हाथों का महत्त्व अधिक था – नर के हों या नारी के, अधिक अंतर नहीं पड़ता था। तकनीक तो थी ही नहीं कि भ्रूण परीक्षण हों और भ्रूण हत्या हो। अन्धविश्वास और संकीर्णता नारी के विरोधी तो थे लेकिन इतने प्रबल नहीं कि लैंगिक अनुपात पर घातक प्रभाव डाल सकें ।
अब स्थिति भयावह हो चली है। कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था होते हुए भी हरयाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश और पंजाब जैसे भागों में हुए कृषि के मशीनीकरण और तकनीकी के प्रयोग ने समाज की सामंतवादी सोच को भी फलने फूलने के नए अवसर दिए हैं। पुरुष वर्चस्ववादी समाज आर्थिक रूप से चाहे कितना भी आगे बढ़ जाय, स्वस्थ और सुखी समाज की चन्द मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के मामले में पीछे ही रहेगा।
Advertisements