चुपचाप रहता न मुस्कुराता हूँ मैं
पड़ोसी को देख 
उसी की तरह 
अजनबी हो जाता हूँ मैं।
न कहता कुछ भी 
दिल में सब रखता 
दोस्तों को गले लगाता हूँ मैं । 
अपने काम से काम 
एक शहरी का फर्ज़ 
निभाता हूँ मैं। 
डिनर के बाद 
दो ह्विस्की के पैग
लगाता हूँ मैं। 
फिर भी जाने क्यों 
सोते सोते रातों में 
यूँ ही जाग जाता हूँ मैं।  
जाने कैसा है ये फर्ज़ 
न जानूँ फिर भी
निभाता हूँ मैं
यूँ ही जाग जाता हूँ मैं।

15 thoughts on “

  1. डिनर के बाद दो ह्विस्की के पैगलगाता हूँ मैं। ——- हुजूर क्या आप ????संभव है यह सिर्फ काव्य-सत्य हो ! आमीन ! फिर भी छोटी सी कविता में एक अंतर्द्वंद्व को रखा है आपने !

  2. @ हिमांशु जी,'न' हटा दिया। बड़े शहरों की ज़िन्दगी अब 'सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यूँ है' की बिडम्बना से आगे वहाँ पहुँच चुकी है जहाँ जलन और तूफान स्वीकृत हो चले हैं। मन में सवाल तक नहीं उठते । एक अज़ीब तरह की झुँझलाहट है जो नकार नहीं पाती क्यों कि नकार के साथ ही बिडम्बना और रोटी से जुड़ी समस्याएँ इतनी बड़ी दिखने लगती हैं कि सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है। दोस्त हैं लेकिन सतर्क से। विमर्श के और समागम के विषय या बहाने परिवेश से बाहर वालों के लिए कौतुहलकारी नहीं भयकारी हैं। 'गोली मार भेजे में ..' का बेलौसपना भी नहीं, अजीब सी बँधी जिन्दगी है, सिमटी हुई सी, औपचारिक सी। कहने के लिए भी दोस्त गले नहीं लगते …दिखावे तक की हैसियत आधुनिक पहनावे सी हो गई है – यूज एण्ड थ्रो … इस विषय पर लिखने की पात्रता नई पीढ़ी में है क्यों कि वह भीतर है हमारी तरह दर्शक नहीं – पंकज उपाध्याय, अपूर्व, दर्पण शाह, दीपक मशाल, पूजा जैसे बेहतर लिख पाएँगे। यह पीढ़ी चेतन भगत के उपन्यासों के पात्रों सरीखी है।

  3. @… यह पीढ़ी चेतन भगत के उपन्यासों के पात्रों सरीखी है।— इस वाक्य की धार देख रहा हूँ ! सत्य ! @ हिमांशु जी ,अरे भाई इस कविता के मूल में वह लेख भी है जिसपर आप शीर्षक के हल्केपन की बात कर आये हैं ! एक कचोट है भाई की ! एक अंतर्द्वंद्व है , जो निकलने निकलने को रहता है , एं वे ही !

  4. चुपचाप रहता न मुस्कुराता हूँ मैंपड़ोसी को देख उसी की तरह अजनबी हो जाता हूँ मैं….अजनबी शहर के अजनबी लोग …दोस्त हैं मगर सतर्क से …क्या कीजियेगा …समय बदल जो रहा है …

  5. @ एक प्रवीण (त्रिवेदी) रह गए हैं। दो तो आ ही गए। 🙂 @ मास्साबशिष्य आलसी है। नरक से गुजरते नहीं डरता लेकिन खरोचों पर मरहम लगाने में आलस आता है लिहाजा बच कर चलना चाहता है। कभी कभी सफल भी हो जाता है लेकिन चाल खराब हो जाती है। … इस रचना को छ्न्द बद्ध करने की सोचा था लेकिन वही आलस ! ..टोकारी के लिए धन्यवाद। अब बहुत कम मास्साब लोग ज़हमत उठाते हैं। लेकिन अपना यह सौभाग्य रहा है कि यहाँ एक नहीं कई मास्साब लोग टोकारी करते हैं। धन धन भाग बहुरे मोरे सजनी . .ध्यान रखूँगा। @ प्रवीण पाण्डेय जीएक छूट गए पहलू को आप ने सम्मिलित कर दिया। टिप्पणियाँ जब पूरक होने लगें तो गहरा संतोष होता है।

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