शहर आ कर
गाँव बड़ा उदास हुआ।
शहर के भीतर
था एक शहर,
एक और शहर, एक और शहर …
वैसे ही जैसे गाँव भीतर
टोले और घर ?
गँवार के भीतर भी
होते हैं कई गँवार
लेकिन गाँव उन्हें जानता है।
उनकी एक एक मुस्कान
उनकी हर गढ़ान
हर हरकत
सब जानता है –
शहरी के अन्दर
होते हैं कई शहरी –
शहर की छोड़ो
कोई शहरी तक इस बात को नहीं जानता !
या जानते हुए भी नहीं ध्यानता ?
शहर के इस अपरिचय से
गाँव हैरान हुआ
दु:खी हुआ ..
गठरी उठाई
पकड़ी चौराहे से एक राह
कि हवलदार ने गाली दी –
” समझते नहीं मुँह उठाए चल दिए
बड़े गँवार हो !”
शहर के इस परिचय से
गाँव उदास हुआ …
.. छोड़ चल पड़ा
वापस आने के लिए-
अपरिचित परिचय
परिचित अपरिचय
से
फिर उदास होने के लिए ..
गाँव के टोले/घर सदा परिचित ,छूट भी जाएँ तब भीशहर के शहर को कौन खोज पाया है
exceelent creation bahut hi gahra bhaav …kabil-e-daad kubool karen
कवि इसलिए ही कह गया है की छाया मत छूना मन होगा दुःख दूना मन -मगर हम मने तब न !हम गवईं मन वालों की यही नियति है ! यह कविता जयपुर में रची क्या ? आप तो उस शहर को धन्य कर रहे हैं इन दिनोंहवा महल चले जाईये इन्ही क्षणों के लिए बुद्धिमानों ने बना रक्खा है !
कभी कभी लगता है कि शहर अधिक गँवार है ।
उदास मत होइए न…शहर की भी अपनी मजबूरी होती होगी शायद…आप भी न एकदम गवईं ही रहे….बिना बात मुंह लटकात…हाँ नहीं तो…!!
ई मेल से प्राप्त टिप्पणी:" गाँव बड़ा उदास हुआ " पर टिप्पणी लायक लगे तो टीप दीजियेगा …गाँव जब शहर आया तो शहर रहा ही कब …गाँव भी गाँव जैसे कहाँ रहे हैं अब ….मसरूफियत शहर की कुछ रही होगी …जिंदगी कही और उलझ रही होगी …. आपके ब्लॉग पर कमेन्ट करने में डर लगने लगा है …..कमेन्ट करने जैसी परिपक्वता जो नहीं है ….बुद्धिमानों ने हवामहल क्यों बनाया …..हम जयपुर वाले नहीं जानते …और सब जानते हैं ….कमाल है…!!
ये कविता गाँव जाने पर निकली या वापस आने पर?
अभिषेक भईया वाला प्रश्न हमारा भी है ! वैसे यह कविता और उम्दा बनती । पहले सोच लिया था न कि लिखेंगे गांव पर, फिर लिखने बैठे ! अगर सही हूं, तो अब यह मत करियेगा !
@हिमांशु जी,यह कविता जयपुर यात्रा के दौरान रच गई। नहीं, सोच कर कविता नहीं रची जाती 🙂 कुछ उफनता है और रचवा जाता है।