पुरानी डायरी से – 10: कल्पना के लिए

6 फरवरी 1994, समय:__________                                               कल्पना के लिए  

कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी – 
मैं रहूँ, मेरा शून्य हो और तुम रहो।
मोमबत्ती का अँधेरा हो/ उजाला हो
हम तुम बातें करें – शब्दहीन
तुम्हारे अधर मेरे अधरों से बोलें
मेरे अधर तुम्हारे अधरों से बोलें
शब्दहीन।
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।


प्रात:काल में जब
सूर्य की किरणों से भयमुक्त
तुहिन बिन्दु सहलाते हों पत्तियों को ।
निशा जागरण के पलों से मुक्त होकर
मैं तुम्हें देखता रहूँ
अपलक
अविराम। 
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।


दुपहर की चहल पहल में
किसी बाग के सनसनाते सन्नाटे में
मेरे श्वास नहा रहे हों 
तुम्हारी तप्त साँसों की शीतलता में
और
घुल रहे हों हमारे एकाकी क्षणों में
किसी अनसुने गीत के बोल।
कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।


संध्या के करियाते उजाले में जब
दीप जलायें या न जलायें
इस असमंजस में हो गृहिणी ।
उस समय हमारा मिलन  छलकता हो 
डूबते सूरज की लाली में।
हमारे बोल गूँजते हों चहचहाहट में।


कभी कभी मैं सोचता हूँ माधवी।
मैं रहूँ मेरा शून्य हो और तुम रहो
कभी कभी मैं सोचता हूँ। 

20 thoughts on “पुरानी डायरी से – 10: कल्पना के लिए

  1. १५ दिसम्बर २००९ ..कनाडाहर बार आपकी कविता आकर खड़ी हो जाती है मेरे ख्यालों के साथ दौड़ लगाने को ..और सच कहूँ तो दौड़ पड़ती है मेरी कल्पना आपकी कविता के साथ…..मगर मेरे ही शब्द पंगु बन जाते हैं…और बस एक शब्द..जो मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं है वही आकर खड़ा हो जाता है ….निशब्द….जिसे न चाहते हुए भी…यही बिठा कर चली जाती हूँ…. क्या करूँ ..!!

  2. एक ऐसा ही प्रस्ताव मैंने भी अपनी माधवी के सामने (युग से बीत चुके) अभी हाल ही में जब अपनी माधवी के सामने रखा तो वह अकस्मात कह पडी की ऐसे ख्श्नों में मैं निपट अकेली ही रहा पसंद करूंगी और मुझे मायूस कर गयी ….किसी कवि ने कह दिया है इसलिए ही ,प्यारे भाई "छाया मत छूना मन, होगा दुःख दूना मन !" लगता है गृह विरही मन मथता जा रहा है अभी भी अनवरत ! संभलो भाई ! समझता हूँ यह पीर पराई !

  3. "चाहता नहीं कुछ और प्रिये ! तुम रहो, तुम्हारा अन्तर होजग को दुलारता इसीलिये ! "औचक याद आयी कविता । कभी प्रस्तुत करुँगा ।जिस बात के लिये मुझे टोकते हो भईया, मैं अनुभव करता हूँ कि सहज-सरल शब्दों से भावित हृदय का सब कुछ कैसे उड़ेला जा सकता है ! अपनी आलोक-कनी वहाँ रखते हो जहाँ अनुभूति-भाव-प्रतीति संयुक्त विलास कर रही हों । क्यों हर बार निर्वाक् करते हो भईया ऐसा कुछ लिखकर – संध्या के करियाते उजाले में जबदीप जलायें या न जलायेंइस असमंजस में हो गृहिणी ।उस समय हमारा मिलन छलकता हो डूबते सूरज की लाली में।हमारे बोल गूँजते हों चहचहाहट में।

  4. संध्या के करियाते उजाले में जबदीप जलायें या न जलायेंइस असमंजस में हो गृहिणी ।उस समय हमारा मिलन छलकता होडूबते सूरज की लाली में।हमारे बोल गूँजते हों चहचहाहट में।और आज मैं सोच रही हूँ कि अगर लाजवाब कहूँ तो ये रचना के मुकावले मे बहुत कम है। बहुत सुन्दर रचना है । आपकी संवेदनाएं शब्दों की आभा मे झलक रही हैं । बधाई

  5. भई एक तरफ लिखते है कल्पना के लिये और कविता में लिखते हैं कभी कभी सोचता हूँ माधवी .. हम तो कंफ्यूज़िया गये .. अच्छा .. कवि की कल्पना है यह …फिर ठीक है । अब हम मूढ़्मति क्या समझें ..हमारे लिये तो जीवन यदु की यह पंक्तियाँ ही ठीक हैं .." पहले गीत लिखूंगा रोटी पर फिर लिखूंगा तेरी चोटी पर " नहीं नहीं निराश न हों .. प्रेम की आग भी तो ज़रूरी तत्व है .. वैसे सन्ध्या के करियाते उजाले का जवाब नहीं अद्भुत प्रयोग है यह ।

  6. हमारे पास एक काल्पनिक चरित्र थी – गौरांगी! पर उस पर इतनी बढ़िया कविता कभी न लिख पाये! याद आया – मैं पर्यटककिन्तु तुमनेक्या किया हैओ नवीने!अपनी गति अब भूलतेरी पायलों का गीत सुनता हूं, संगीत सुनता हूं!

  7. गूढ़ अर्थ:यह वह दौर था जब 'कामायनी' के चक्कर मे वेदों की घुटाई कर रहा था। कामायनी और ऋग्वेद दोनों में मधु शब्द बहुत बार आया है। ऐतिहासिक उपन्यासों से जाना कि भारत में मदिरा पान की परम्परा बहुत प्राचीन थी। अंगूर से द्राक्षा, जौ से मैरेय, ईंख से सुरा, मधु से माधवी… मदिरा के अनगिनत प्रकार और उनको पीने के अनगिनत अवसर और अनुष्ठान ! इस माधवी पर अटक गया। कितनी मीठी तासीर होती होगी!जरा सोचिए 23 साल का जवान जिसने उस समय तक दारू देखी न थी, 'मधु से माधवी की कल्पना' से ही टल्ली हो गया। कल्पना ने उड़ान भरी और सुबह से लेकर रात तक पान करते पियक्कड़ की रूमानी भावनाएँ कागज पर उतरती चली गईं….यह है माधवी और कल्पना का रहस्य जिसका जिक्र उपर स्मार्ट भैया किए हैं।

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